न्याय का अन्याय
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है मयस्सर नहीं न्याय लोगो तुझे,तुम उठो और उठाओ अपना ये शव।
टाँग दो इसे आसमाँ में तथा,ताकि बनता रहे रौशनी का सबब।
तुझे हो गुमां यह तेरा गजल,तुम्हारा रहे बन जाये न चुप तस्स्लियाँ।
फोड़ पत्थर उठा शव सजाने तथा ताकि सजती रहें तेरी गजलें गजब।
है सागर में पानी,नभ में रौशनी बहुत और धरती गजब की है उर्वरा।
अपनी किस्मत को ढूंढ़ो जाओ वहां,न्याय तेरा वहीं जाओ जाओगे कब।
कोई पुस्तक अगर ज्ञान ऐसा कहे,बाँट उसे हर दरख्तों को तुम।
गुम न जाना सुनहरे हर्फों में तुम वरना जायेंगे बन स्याह तेरे हर लब।
जिसको देखा न,वह न्याय सूरत से भी और सीरत से भी खूब है खूब है।
अपने चर्म के रंग पे इठला उठो,शर्माओ नहीं स्याह ही, रंग है केवल अजब।
खुद को मानो खुदा खुद पर हावी रहो खुद को दर्शन की तर्कों में बांधो नहीं।
कोई दर्शन तुम्हारा तुम्हें न्याय दे उस दर्शन का दर्जा खुदा है या रब।
अपने कंधे पर खुद अपने हाथों से चढ़ और आवाज खुद को लगाते रहो।
बचाते रहो खुद को सोने से तुम नींद में स्वप्न है खुशनुमा है गजब।
या तो हिम को डुबा देना सागर में तुम अब कोई प्रतीक्षा नहीं न्याय को।
न्याय पाने को हो तो सागर उठा हिम के माथे पर जाके आओ पटक।
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