नौ द्वारों की नगरी
यह मैं कहां आ गई भटकते भटकते ,
यह मेरे लिए है बड़े अनजाने रास्ते ।
अरे ! यह काली अंधेरी गुफा कैसी ?,
प्रवेश तो किया मैने मगर डरते डरते ।
ओह ! मुझे इसमें बहुत डर लग रहा है ,
महसूस होता है मर जाऊंगी दम घुटते।
हे ईश्वर ! कृपा कर मुझे यहां से निकालो ,
बड़ा उपकार मानूंगी तेरा यहां से निकलते ।
मेरे जीवन को तुम अपनी अमानत समझो ,
हर सांस गुजरेगी अब तेरा ही नाम जपते ।
धन्यवाद प्रभु ! तेरा कोटि कोटि धन्यवाद,
तुमने मुझे नर्क से निकाला पलक झपकते।
मगर प्रभु ! यह कैसा अनोखा उजाला है ? ,
इसके कण कण मेरी आंखों को है चुभोते ।
मैं अपनी आंखें भी खोल नहीं पा रही हूं,
मगर तेरी जुदाई में आंसू मेरे हैं बहते ।
यह कौन अजनबी चेहरे है मेरे आस पास ? ,
यह भला मुझे रोता देख कर क्यों हैं हंसते ?
मेरी समझ से बाहर है इन लोगों का व्यवहार ,
गोद में ले लेकर क्यों सब मेरे मजे हैं लेते?
यह कौन है जो मुझे अपने रक्त से सींच रहा है?
जिसके नयन है ममता और स्नेह मुझ पर लुटाते।
अब तक न समझ सकी किस लोक में मैं आई हूं ,
मगर यह जीवन मिले मुझे हो गए २ साल बीतते ।
अब धीरे धीरे कुछ कुछ रिश्ते पहचानने लगी हूं,
यूं लगने लगा है जैसे मेरे इनसे जन्म जन्म के नाते।
ज्यों ज्यों मेरी उम्र बढ़ती जा रही है इस लोक में,
मैं रिश्तों के माया जाल में जा रही हूं फंसते ।
मां बाप और अन्य रिश्तेदारों का प्यार मिला ,
मगर यह कौन है जिसके स्वर मुझे हैं उकसाते ।
दुख – सुख ,हंसी-रुदन , खोना – पाना यह क्या है ?,
यह कैसी लालसा जग गई है किंचित सुख पाते ।
यह कौन है जिसकी डोर में कठपुतली से नाच रही हूं,
शायद यह मन है जिसके शिकंजे में जा रहीं हूं फंसते ।
नयन सुंदर दृश्यों में,कर्ण सुरीली मदमाती धुनों में,
जिव्ह्या स्वादिष्ट पकवानों में जा रही है उलझते ।
नासिका में मनमोहक सुगंध फूलों व् पकवानों की,
और त्वचा को सुन्दर पहनावे और स्पर्श अब भाते ।
यूं लगता है इंद्रियां भी मुझे वशीभूत कर रही हैं ,
यह मन और इसकी सेना कैसे षडयंत्र रचते ।
मन की सेना में मानवीय विकार भी शामिल होकर ,
ईर्ष्या ,द्वेष , क्रोध ,अहंकार आदि भी प्रभाव डालते ।
मन की भटकन मत पूछो कैसे कैसे दाव खेले ,
कभी भलाई कभी बुराई में जा रही हूं पिसते ।
इस नगरी में तो अब मैं बुरी तरह फंस चुकी हूं ,
परंतु मन के वश में कर भी कुछ नहीं सकते ।
इस लोक के माध्यम से सांसारिक भोग विलास में,
जरूरतें पूरी करने के साथ लोक व्यवहार निभाते।
अब तक तो ले रही थी जीवन और संसार के मजे,
रम चुकी थी पूरी तरह बिना कुछ सोचे और समझते ।
मैं कहां से आई थी और कहां मुझे पुनः जाना था ,
यह मेरा वास्तविक घर नहीं जहां आ गई चलते चलते।
एहसास तब हुआ जब यह नगरी धीरे धीरे लगी ढहने ,
अब हकीकत सारी इसकी देर ना लगी मुझे समझते ।
अब मेरा यहां दम घुटने लगा है जी उकता सा गया है ,
सोच रही थी क्यों न समय गुजारूं “उसे “याद करते।
मगर अपने कर्मो के लेखे बाबत मुझे संकोच हुआ ,
कैसे मुंह दिखायूंगी ,शर्म आयेगी उनसे नजर मिलाते।
माफ तो वो मुझे कर देंगें चूंकि मैं उनका ही अंश हूं ।
माता पिता कब संतान से जायदा देर रूठे हैं रहते ।
वो चाहे चौरासी के चक्कर में डाल दें उनकी मर्जी ,
कर्म जैसा किया है तो कर्म फल से भी नही डरते ।
मन से हार कर,आत्म ग्लानि से भरी हुई मैं अबला ,
अपनी ही आंखों से देख रही थी नगरी को टूटते ।
तभी अचानक एक दिव्य ज्योति का आगमन हुआ,
और खींचा अपने हाथों से देर न लगाई मुझे तारते ।
मेरे निकलते ही सहसा तभी अजब धमाका हुआ ,
और मैने देखा नौ द्वारों की नगरी को धवस्त होते ।