नोकरी
मेरी इकलौती महबूबा,
बताये रोज़ नखरे क्यो?
तुझे मालूम तेरे बिन ,
नही कुछ भी कभी हूँ मैं।
लगाती रहती है ठोकर,
पड़े मरज़ी जिधर ही तू।
कहे फिर नॉकरी तुझको,
कहे या प्यारी महबूबा,
मेरी तो ज़िन्दगी भी तू,
मेरी तो चाकरी भी तू।
अगर मैं छोड़ दूँ तुझको,
मज़ा जीने का आ जाये।
अगर तुझको निभाऊं तो ,
पसीना जीने में आ जाये।
गज़ब इमतान लेती है,
गज़ब के भाव खाती है।
करूँ तेरी फ़िकर जितनी,
नाच उतना नचाती है।
मगर मैं भी तो जिद्दी हूँ,
किसी मजनूँ के माफिक ही,
नहीं छोड़ू तेरा पीछा,
तेरा मैं सच्चा आशिक हूँ।
ये तन खा के मिलती है,
तनख्वाह जिसे कहते।
दीवाने हम उसी के है ,
किसी के रुखसार से लगते।
कलम घिसाई