नैन (नवगीत)
नैन
चाहत जागी मन प्रियवर का
गाँठ हृदय का खोल रहे ।।
वाणी से बानी कब फूटे
नैन सभी कुछ बोल रहे।।
दर्शन का यह प्यासा मन है
नैन विकल पथ ताक थके ।
आशा की मन डोरी बाँधी
बीत चला युग पग न रुके ।
गिरिधर से मिलने की चाहत
आस मधुर सी घोल रहे ।।
मानवता मुरझाई डोले
कौन किसी का मीत बना।
स्वार्थी सारा जग ये दिखता
रार यहाँ दिन रैन ठना ।
मानव कोई पिसता जाता
पीर कहाँ वह तोल रहे ।।
वाणी पर भी देखो पहरा
लोग बने कुछ मूक यहाँ।
पापी मानव वेशी घूमें
देख कभी थे देव जहाँ ।
अन्तस मन की विचलन नोंचे
प्राण अधर में डोल रहे ।।
डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली