नैन की भाषा
कुछ बोलते हुए लगते है
परत मन की खोलते है
कभी संकोच करते है
कभी भूमि पर टिकते है
भाषा नैनों की अजीब होती है
अन्तस में उतर सजीव होती है
तुम्हारी नजर टिकी मेरे पर
कुछ झिझकी सिमटी सी दिखी
शर्म थी या इकरार था न पता
पर कुछ मौन कुछ कही लगी
नैनों की भाषा अमिट होती है
स्वाद जैसी बहुत लजीज़ होती है