नेत्र
नेत्र
———–
विस्तृत नेत्रों के तरंग,
और होंठो की लाली ,
दाह सा भरता उमंग
लहरों की शीतलता संभाली !
भोली सी सरलता रूप लिए ,
विविधता का प्रतिरूप लिए ,
हो सुरम्य ! नेत्रों से बरसे मेघ ;
शांत सुहृदयों को देता वेध !
नेत्रों के अंजन डूबोती
लहरों में कितने भेद-प्रभेद ,
व्यथित लहरों में तारतम्य ले ,
विभिन्न भ्रांतियों का करे विच्छेद !
ये नयन-नीर है स्वर्ण विहान सी
विभवों में फैला कैसा सुन्दर है ,
यही स्नेहमय मंगल-कानन है , है उत्कर्ष उर्ध्व ध्यान सी ;
यही ठगिनी माया नश्वर है !
सुरम्य हिमालय की मलय-समीर सी ,
हरती पीड़ा मन की विविध गंभीर ;
पुष्पित हृदयों के प्राण द्रवित कर ,
भाती प्रेम सन्निहित नयन-नीर !
नेत्रों से संचरित तरंगें
कितनों को करती संपुरित ,
कितने हृदयों को तोड़े-जोडे़
कितनों को कर देती धुसरित ।
नेत्रों की गहरी जलधारा में
समूचा है ब्रह्मांड समाया ,
लहरें-लहराती आती फहराती
कभी दुविधा में डूबोती माया ।
उफान भरी यौवन धारा में ,
डूबे अपलक सौम्यता सा दीखता हूं ,
मैं तो नेत्रों से नेत्र मिलाए
आगाध आत्मीयता को लिखता हूं ।
✍? आलोक पाण्डेय
वाराणसी भारतभूमि )