नेकी को पहचानो
छल और प्रपंच से छलनी
किया गर यार का हृदय
यूँ दिल दुखाने से दोस्ती
कभी निभती तो नहीं है।
मंदिर में आंखें मींच कर
सब रख दी ख्वाहिशें
भक्ति का नाम स्वार्थ
की पूर्ति तो नहीं है।
ठेका लिया है दया धर्म का
तो मां बाप क्यों दुखी
मानवता की सूरत से
ये मिलती तो नहीं है।
सच को दबाना चाहे
हम झूठ के बोझ से
सच्चाई कभी खुद से
ही डिगती तो नहीं है।
गर की है खेती हमने
यहां सिर्फ बदी की
ऐसी ज़मीं पर नेकी
कभी उगती तो नहीं है ।
रंजना माथुर
जयपुर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना