“नींद नहीं आती है”
रात बड़ी लम्बी है
ज्येष्ठ की गरमी है
पिघल रहे तन जैसे
मोम की नरमी है
चैन नहीं है कहीं
बेचैनी में रात बीत जाती है
नींद नहीं आती है, नींद नहीं आती है।।
धधक रही है वसुधा
रवि के तापमान से
सिसक रही दिशाएं
मेघ तेरे गुमान से
तड़प रही है धरा
हिम्मत छूट जाती है
नींद नहीं आती है, नींद नहीं आती है।।
जब कट रहें हो झाड़ी,वन
जल का हो रहा हो दोहन
प्रकृति से खिलवाड़ का तब
क्यों न भुगते प्रतिफल प्रसून
निर्दोष निज को मानूं कैसे
कुछ सवाल रूह में अकुलाती है
नींद नहीं आती है, नींद नहीं आती है।।
स्वरचित व मौलिक रचना- राकेश चौरसिया