नींद कोसों दूर
नींद कोसों दूर
आज मैं,
अपने घर के
उसी पुराने चौक में
खाट के ऊपर, सीधा लेट
देख रहा आसमान को
उसकी लीली भंगिमा को
उसकी विषाल गहराई को
अचानक…. बिजली कौंधी
मस्तिष्क छटपटा गया
छोटी से छोटी नस भी
सिकुड़ने लगी
आसमान की गहराई में
दूर-दूर तक जाने लगी
सिर में दर्द बढा
मस्तिष्क फटने को हुआ
तभी नजरें खाली-खाली से
उस आसमान में
शायद कुछ ढूंढने लगी
पुराने ख्यालों में
छोटी-छोटी नलियां ले जाने लगी
जब छोटा था तब भी मैं
आसमान को तांकता था
उस समय मुझे
गोल-गोल घेरों में घुमते
दूर, कई मील दूर
गहराई से घुमते
छोटे मच्छर जितने छोटे
नन्हें जीव दिखाई देते
तब मैं खाट में लेटे-लेटे
मां या फिर अपने पिता से
पूछता उनके बारे में,
तब मां मेरा सिर सहलाकर
या पिता दुलार कर
कहते, बेटा ये चील है।
चील……… ?
ये चील इतनी छोटी
मैं ऐसे ही उन्हें देखता
मन पंछी बन उड़ता मेरा
उनके फिर पिछे दौड़ता
मैं भी उडूं नील गगन में
लेटा सोचता मैं ये लेटा
बस यूं ही पता नही कब मेरी
आंखे लग जाया करती थी
फिर सोते-से जाग कर मैं
उनको ढूंढा करता था।
यदा-कदा, ईधर-ऊधर
बैठी भी मिल जाती थी
सोचते-सोचते मैंने सोचा
आज ये नीला आसमान
इतना साफ ओर नीला क्यों हैं ?
इसको नजर से बचाने वाले
काले-काले वो तिल कहां हैं ?
यही सोचते-सोचते पलकें मेरी
आज फिर से डबडबा गई।
आंखें मूंदी से सोने को
नींद ही कोसों दूर गई ।