नि: स्वार्थ सेवा।
मनुष्य को कभी, कभी निष्काम भाव से सेवा करना चाहिए। स्वार्थ के लिए बहुत सारे लोग जीतें है,पर नि: स्वार्थ केवल विरला ही योगी होता है,जो बिना स्वार्थ के काम के लिए किसी की सेवा करें।यह एक तपस्या के समान है।पर!यह सृष्टि का निर्माण स्वार्थ के बिना नहीं हो सकता है। इसलिए स्वार्थ भी जरूरी है। स्वार्थ सेवा का रूप है, और नि: स्वार्थ तप का रुप है।
तो सृष्टि निर्माण के लिए दोनों ही जरुरी है। मनुष्य को चाहिए कि,वह सेवा दोनों भाव से करें तो उसका मोक्ष मिलना निश्चित है। मानव जीवन का सार है मोक्ष की प्राप्ति, और वह अपने लक्ष्य को न भूलें। यही मानव जीवन है। क्योंकि उसे अपनी आत्मा की तकलीफ़ मालूम नही है।जो मानव आत्म ज्ञानी होते हैं,वह आत्मा के दुख को समझ सकते हैं।आत्मा समस्त योनियों में बहुत कष्ट भोगती है। मनुष्य को जब आत्म ज्ञान हो जाता है।तब वह कुत्ते की आत्मा से पूछता है कि उसे कितना दुख होता है। तभी से आत्मा ने प्रण किया कि वह अब किसी भी शरीर में नही आयेगी। फिर वह तप से मोक्ष की प्राप्ति करेंगी।