निश्छल मन का है मोल नहीं
निश्छल मन का है मोल नहीं,लेकिन वो मन बेमोल नहीं।
कुदरत को प्यारा निश्छल मन,मानुष का सच तो बोल नहीं।
ये कनक सोहती है उसको,जो पड़े गरलता के पीछे।
उनका तो सच से आभा है,जो पड़े सरलता के पीछे।
मत बोलो सच इस दुनियां की,कपटी निज आत्म टटोल नहीं।1
क्या कहूं रीत इस दुनियां की,जो सच को सदा सताया है।
पीपल के जड़ को सुखा दिया,कांटों का पेड़ लगाया है।
है अनमोल वृक्ष ज़हर का,फलदारों का कोई मोल नहीं।2
मेरा भी क्या दर्द सुनोगे या खुद का सिर्फ़ सुनाओगे
दो दर्द मुझे भी तुम मानुष गर चैन इसी से पाओगे।
सुलगी रातें दहका दिन भी है शामों का कोई मोल नहीं।3
पल भर की बात सुनो मेरी ,किंतु सदियों की कहानी है।
मन में है जिनके निश्छलता,उनके आंखों में पानी है।
बोतल में भर अनमोल हुआ किंतु आंसू का मोल नहीं।4
पल पल वहशत है आंखों में ,वो मादकता को खोज रहे।
ओज चिन्ह विहीन भाल पर साधकता क्यों खोज रहे?
है प्रश्न जटिल तो उत्तर क्या? कह दो प्रश्नों से तौल नहीं5
निजता से रिश्ता बनती अनुराग सुलभ पर में होता
गर बड़े चाव से तुम दीपक हां बीच समंदर में सोता।
फिर कहता इस तूफानों से है साहिल का कुछ मोल नहीं।6
दिल से दिल वृहद विशाल हुआ तिल्ली से जला मशाल हुआ
चलकर पाथिक क्रांति के पथ हां ओज युक्त यूं भाल हुआ।
जब दिव्य ज्योति जागृत हो तो बोलो कब मिलता मोल नहीं?7
मैं अभिलाषी हूं सतत समग्र योगी साधु को पूजा हूं।
मैं हूं सच में तनहा दिल या फिर दुनियां में दूजा हूं।
गर तुम हो मेरी प्रीति अभय फिर मेरा क्यों कुछ मोल नहीं?8
थोड़ी सी कनक मुझे दे दो देखूँ क्या मोल मिलेगा अब?
जानूं भी तो इक बात यहां सोने से फूल खिलेगा कब?
सोते सोने भाते हैं पर जगते सपनों का मोल नहीं।9
छोड़ो दुनियां की बातें अब है व्यर्थ मनन और ये चिंतन।
उन्मुक्त उड़ो संवेग सिंधु से लेकर छूने स्वच्छंद गगन।
ये दिल है आओ बस जाओ होता दिल का भूगोल नहीं!10
कवि दीपक झा रुद्रा