निश्चल छंद और विधाएँ
निश्चल छंद #निश्चल छंद 16- 7 पदांत गाल
सरल विधान –
(चौपाई चरण (जिसकी यति जगण छोड़कर चौकल हो )
+ चौकल (जगण छोड़कर ) +गाल
/ अथवा -गाल + जगण
सदा देखते हम मानव की , चाल कुचाल |
वह क्षति पहुँचाकर भी करता , नहीं मलाल ||
अपना स्वारथ अपनी बातें , अपना काम |
अच्छा बनता कहता दूजे , है बदनाम ||
फटे पजामें में वह टाँगें , देता डाल |
सभी जगह पर बनता ज्ञानी , वह हर हाल ||
बेतुक की भी बातें करकें ,देता ज्ञान |
अकल अजीरण. लेकर घूमें ,सीना तान ||
बना घोसला पंछी अपना , करते गान |
स्वर्ण पिंजरा उनको लगता, नर्क समान ||
सबको अपने घर से रहता , अनुपम प्यार |
अपनी कोशिश से करता है , उसे सँवार ||
शेर देखिए जंगल सोता, अपनी माँद |
नहीं चाहता सिर के ऊपर , चमके चाँद ||
भले गुफा है छोटी उसकी , पर संतोष |
नहीं किसी को जाकर वह भी , देता दोष ||
सुभाष सिंघई
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निश्चल छंद 16-7 पदांत गाल (मुक्तक)
समय मिले जब लिखते जाओं, कुछ उद्गार |
भाव हृदय के सुंदर लाकर, कर उपकार |
मात् सरस्वति कृपा करेगी , देगी नेह –
सार पकड़कर सार निकालो, बाँटो सार |
शीत माह की धूप सुहानी , खिलते बाग |
मोर हृदय का हर्षित होता , सुनता राग |
सुमन खिलें मन में मनमोहक , हँसते फूल –
लेखन से कुछ पावन होता ,मन का भाग |
मंजिल भी मिल जाती उनको , जो हो काम |
सूरज तपकर ठंडा होता , आए शाम ||
कीचड़ भी जब कमल खिलाता, महके गंध –
जीत सत्य की रहे हमेशा , होता नाम |
जहाँ कोठरी काजल की है , लगते दाग |
सुनी कहावत बहुत पुरानी , जलती आग |
तपकर बचकर जो भी निकले , होता संत –
आगे जीवन उसका देता , सदा पराग |
कभी -कभी मैं देखा करता , अपनी दाल |
लोग गलाने चल पड़ते है , चलकर चाल |
बीन बजाते खूब हिलाते, अपना शीष –
नहीं सफलता मिलती उनको , करें मलाल |
खरबूजा खरबूजे के सँग , बदले रंग |
सदा एक- सा कर लेते है , अपना ढंग |
हो जाते है दूर सदा को , टूटें डाल –
अपनी- अपनी राह चले सब , रहते तंग |
सुभाष सिंघई
निश्चल छंद , 16 – 7 , अंत गाल (मुक्तक)
बनने का जब अवसर आए , बनना खास |
भक्त बनो हनुमान सरीखे , प्रभु के पास |
संत हुए रविदास भगत जी , जग में नाम –
गंगा को खुद पाया घर में , रखे उजास |
पत्थर जैसा टूटा देखा , है अभिमान |
नहीं नीर की टूटी देखी, हमने आन |
एक चोट से पत्थर टूटे , बिखरे राह ~
पानी हँसता कभी न खोता , अपनी शान |
जगह- जगह पर देखी गलियाँ, उगते शूल |
जहर बरसता वहाँ न खिलते , कोई फूल |
आज धरा पर रोता मिलता , है विश्वास –
यहाँ झूठ को अच्छे-अच्छे , देते तूल |
सुभाष सिंघई
निश्चल छंद 16- 7 चौपाई चरण + 7 पदांत गाल ( मुक्तक )
जिसका जग में साथ निभाते , कर विश्वास |
जिसको भी हम माने दिल से, अपना खास |
आगे की मत पूछों कैसी , मिलती घात ~
जहाँ घाव कुछ लग जाते है , उगते त्रास |
सीने पर आरी चल जाती , चुभे कटार |
सदा पीठ पर मिलते रहते , है कटु वार |
खेल खेलते लोग निराले , चलकर चाल –
जगह- जगह पर मिलें देखने , जलते खार |
नाम आपका लेकर होते , ऐसे काम |
जगह -जगह पर होते रहते , है बदनाम |
समझ न पाते कोई फितरत, कोई भेद –
पता न चलती अब घातों की , कोई शाम |
सुभाष सिंघई जतारा ( टीकमगढ़ ) म० प्र०
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निश्चल छंद,( मुक्तक )
कौन जगत में तुमसे अच्छा , दीनानाथ |
जग में ईश्वर तुमको मानूँ , थामूँ हाथ |
सुनकर दीन पुकार प्रभु जी, देते तार ~
कृपा आपकी पाकर होता , उन्नत माथ |
आप जगत में प्रभुवर करुणा , के अवतार |
सदा शरण में लेते सुनकर , दीन पुकार |
भक्तों का भी मान बढ़ाते , सुनते बात ~
देकर चरणों की रज करते , हो उद्धार |
सुभाष सिंघई
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निश्चल छंद , गीत
सवसे न्यारा सवसे प्यारा, इसका मान | (मुखड़ा )
झण्डा ऊँचा रहे हमारा, गाते गान ||(टेक )
वह झंडे के आगे चंगे , बोलें बोल | (_अंतरा)
हम अधनंगे झंडा थामें , समझें मोल ||
नेता जी भी भाषण देकर , बने प्रधान |
भाषण सुनना लाचारी का ,मिलता पान ||
वह विकाश का नारा देते , हमको आन |( पूरक )
झंडे ऊँचा रहे हमारा , गाते गान ||(टेक )
करकें काले गोरख धंधे , बनें महान |
लोकतंत्र के हम सब बंदे , है हैरान ||
लोकतंत्र अब कॉपे थर-थर,सुनकर व्यान |
चर्चा में वस रहना उनका , रहता ध्यान ||
नेता का हरदम जयकारा , लगता तान |
झंडे ऊँचा रहे हमारा , गाते गान ||
नाम बड़ा है नेता जी का , कहते लोग |
कुर्सी का बस रहता है जी, उनको रोग ||
हर अवसर पर वह जब खींचें, झंडा डोर |
करें सलामी फिर सब देखें , उनकी ओर ||
लोकतंत्र के यही दरोगा , है दीवान |
झंडा ऊँचा रहे हमारा , गाते गान
(सुभाष सिंघई)
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निश्चल छंद गीतिका , 16 -7 पदांत गाल ,
स्वर – ऐं पदांत – विकार
राग द्वेश के तीर जहाँ भी , करें शिकार |
कालिख मुख पर सदा लगाते , भरें विकार |
जो भी मन में पाले रहता , है अभिमान ,
चाल-ढाल मुख बोली से भी झरें विकार |
धन से बढ़ता मद देखा है , मद है रोग ,
रोगी बनकर रोग बढ़ाता , धरें विकार |
काँटे उसको जग में मिलते , मिले न फूल ,
कभी नहीं उससे इस जग में , डरें विकार |
मन जिसका हो निर्मल पानी , मीठे बोल ,
सदा देखता उसके अंदर , मरें विकार |
क्रोध सदा ही करता मन को , खूब अशांत ,
संत हृदय को जब भी देखें , टरें विकार |
सुख विकार में जो भी खोजे , भारी भूल ,
सत्संगति जिनको मिल जाती ,तरें विकार |
सुभाष सिंघई
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निश्चल छंद , गीतिका (अपदांत )
जीवन में सुख दुख आता है , कष्ट अपार |
फिर भी मानव जी लेता है, यह संसार ||
शीत गर्म का अनुभव मिलता, सहते लोग ,
हर्ष विषादों का जब लगता , है अम्बार |
जीवन है शुभ मंगल सबको , मानो बात ,
कर्म आपके भरते उसमे ,अमरत खार |
जहाँ धर्म से कर्म हमेशा , करते लोग ,
उनको देता ईश्वर भी है , अपना प्यार |
जहाँ कलश है पुण्य कर्म से ,अब भरपूर ,
सदा जानिए देगा ईश्वर , कृपा निहार |
यह तन जानो ईश्वर की तुम , खींची रेख ,
कहें सुभाषा जोड़े रहना , अपने तार |
सुभाष सिंघई
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