Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
30 May 2023 · 12 min read

निशानी

“सुना है तुम छुआछूत की सामाजिक कुरीति पर कटाक्ष करता हुआ कोई नाटक करने वाले हो इस बार अपने स्कूल में”, संतोष भईया ने मुझसे शाम को खेलते समय पूछा, “और उस नाटक की स्क्रिप्ट भी तुमने ही लिखी है, बहुत बढ़िया”। “हाँ भईया”, मेरा उत्तर था। मेरा उत्तर तो संक्षिप्त था परन्तु मन में उल्लास का अथाह सागर लहराने लगा था। बचपन के उस दौर में अपनी ओर ध्यानाकर्षण के लिए मेरी उम्र के बच्चे क्या कुछ नहीं कर जाते थे। माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी या फिर अपने अध्यापक, किसी से भी मिला प्रोत्साहन हम बच्चों के लिए अमूल्य होता था। और वो प्रोत्साहन अगर सभी बच्चों के फेवरिट संतोष भईया से मिला हो तो उल्लास दोगुना हो जाता था। “धर्मेन्द्र ने मुझे स्क्रिप्ट दिखाई थी, बहुत शानदार स्क्रिप्ट है, बहुत अच्छा लिखा है तुमने इतनी छोटी सी उम्र में”, संतोष भईया तारीफों के पुल बाँध रहे थे। खेल रुक गया था थोड़ी देर के लिए। सभी बच्चे अपनी बैटिंग, बॉलिंग और फील्डिंग की पोजीशन छोड़कर वहीँ आ गए थे। संतोष भईया की तारीफों के पुल बाँधने का असर ये हुआ कि जो बच्चे अब तक मुझे साधारण सा, खेल में कमजोर बच्चा, समझकर तिरस्कार का भाव रखते थे और चूँकि वो भी बच्चे थे तो इस बात को खुल्लम-खुल्ला प्रकट भी कर देते थे, वो भी उस दिन के बाद से प्यार और सम्मान से बात करते थे। बच्चों ने अपनी टीम में से मुझे भगाने की बजाय अपनी टीम में लेने को सम्मान का विषय बना लिया था। उन बच्चों के बीच में एक स्थापित साहित्यकार और विशिष्ट व्यक्ति जैसा दर्जा मिल चुका था। “तो कब है तुम्हारे नाटक का प्रदर्शन, गणतंत्र दिवस पर क्या”, वो जैसे डेट कन्फर्म करना चाह रहे थे। “मुझे देखने को मिलेगा तुम्हारा नाटक, तुम्हारे स्कूल वाले मुझे देखने की अनुमति देंगे। अगर मुझे अनुमति मिल जाए तो मैं भी देखना चाहूँगा”, संतोष भईया भईया के इस सवाल ने मुझे असमंजस में डाल दिया था। स्कूल के बहुत सख्त नियम थे और संतोष भईया को मैं मना नहीं करना चाहता था। दरअसल मेरी दिली इच्छा थी कि संतोष भईया को भी नाटक देखने की अनुमति मिल जाए। “भईया मैं आपको स्कूल में पूछकर बता दूँगा”, मैंने संदेह भरे लहजे में संतोष भईया को जबाब दिया “आप आयेंगे तो बहुत अच्छा लगेगा”। बदले में संतोष भईया ने प्यार से मेरे सिर पर एक हल्की सी थपकी दी। “मुझे दोस्त मानते हो तो जरूर प्रयास करोगे और अगर अनुमति न मिले तो दुखी नहीं होना, पर मिल जाए तो बहुत मजा आएगा, मुझे भी”, प्रत्युत्तर में संतोष भईया ने दोस्ती की हुड़की और दिलासा एक साथ दे डाली। बात को बदलते हुए उन्होंने जोर से ताली पीटते हुए कहा, “चलो-चलो किसकी बैटिंग है”।

उन दिनों बड़े-बड़े पब्लिक स्कूल नहीं हुआ करते थे। अगर होते, तो भी मेरे पिताजी की उन स्कूलों की भरी-भरकम फीस भरने की हैसियत भी कहाँ थी। वैसे भी उस दौर में मेरे हिसाब से अधिकतर बच्चे सरकारी स्कूल, सरस्वती स्कूल या फिर छोटे-मोटे आवासीय मकानों में खुले हुए स्कूलों में ही शिक्षा ग्रहण करते थे। या शायद तब पब्लिक स्कूल भी होंगे पर कभी भी पब्लिक स्कूल और कान्वेंट स्कूल में दाखिला लेने की ओर ध्यान नहीं गया। वैसे भी अपने स्कूल पर हमें नाज़ था। मेरा स्कूल आस-पास के क्षेत्र का सर्वाधिक अच्छा स्कूल माना जाता था। इस स्कूल का अनुसाशन तो बहुत उत्कृष्ट एवं विख्यात था। नैतिक शिक्षा और खेलकूद पर भी पूरा ध्यान दिया जाता था। हर वर्ष स्वतंत्रता-दिवस और गणतंत्र-दिवस पर खेल-कूद प्रतियोगिताएं और सांस्कृतिक गतिविधियाँ होती थीं। इसी के तहत होने वाले गणतंत्र-दिवस के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मेरा नाटक भी रखा गया था। सच पूछो तो मुझे नाटक के विषय के बारे में कुछ भी पता नहीं था। यह मेरे सहपाठी धर्मेन्द्र का प्रस्ताव था कि इस बार के गणतंत्र-दिवस समारोह में भाग लिया जाये और तय हुआ कि नाटक किया जाए। विषय भी धर्मेन्द्र ने तय कर लिया था बस स्क्रिप्ट की कमी थी। पता नहीं कहाँ से मेरे मन के अन्दर से आवाज आई कि लिखो और मैं उसी समय अपनी पाठ्य-पुस्तकों में मौजूद नाटक की शैली में संवाद लिखने लगा। लंच-ब्रेक समाप्त हो चुका था। अपने सहपाठियों के द्वारा लिखे गए नाटक के अंश अनुमोदित हो जाने के बाद घर आकर पूरी स्क्रिप्ट लिख डाली। जल्द ही कुछ संसोधनों के साथ स्कूल द्वारा नाट्य-मंचन की अनुमति मिल गई थी। कक्षा पाँच के सभी सहपाठी बड़े उत्साहित थे और नाटक में भाग लेना चाहते थे। अध्यापको ने इसमें सहायता की और नाटक और उसके कलाकार अब तैयार थे। इस नाटक के एक पात्र पंडितजी के किरदार का अभिनय मुझे करना था। स्कूल बहुत साधन-संपन्न नहीं था लिहाजा कक्षा के सभी बच्चे नाटक की प्रॉपर्टी और वेशभूषा के इंतज़ाम में लगे हुए थे। सब कुछ तो तैयार था पर पंडितजी के लिए एक ख़ास तरह की ऐनक चाहिए थी, जिसका इंतज़ाम कोई भी नहीं कर पा रहा था। ऐसे वक़्त में मुझे संतोष भईया की याद आई। मुझे विश्वास था कि वह हमारी समस्या का निराकरण अवश्य कर देंगे।

संतोष भईया हम सब बच्चों से उम्र में बड़े थे। मोहल्ले के मेरे मित्र बच्चे आठ-दस वर्ष के थे तो उनकी उम्र उस वक़्त चौदह-पन्द्रह रही होगी। पर उम्र के अंतर के वावजूद वो हम सब बच्चों के मित्र ही थे। हम सब एक-साथ ही खेलते थे। हालाँकि बच्चे उन्हें भईया कह कर पुकारते थे। शायद इसका कारण ये रहा होगा कि उस गली में उनकी उम्र का एक भी बच्चा नहीं था, जो भी थे वो या तो हमारी वय के थे या बहुत बड़े। या शायद इसलिए कि मेरा मकान उनके मकान से बहुत नजदीक था। हम सब बच्चे उसी मोहल्ले में शुरू से रह रहे थे। संतोष भईया का परिवार कुछ एक-डेढ़ वर्ष पूर्व ही आया था। उनके पिताजी ने मोहल्ले के सबसे आख़िरी मकान को खरीद लिया था। उस वक़्त के पॉश मोहल्ले की हमारी उस गली के सारे मकान पूर्व या पश्चिम की दिशा में थे। संतोष भईया का मकान दक्षिण-मुखी था। उस मकान की दीवाल से सटी हुई अनधिकृत झोपड़ीनुमा बस्ती थी। इस बस्ती के बच्चों के साथ हम लोग नहीं खेलते थे। इसकी वजह मुख्यतया उनका गँदगी से रहना था। उनमें से सिर्फ एक बच्चा बऊवा था जो हम लोगों के साथ कभी-कभी खेल लेता था। उसको ये विशेष दर्जा मिलने का कारण उसका साफ-सुथरा रहना और संतोष भईया के मकान से उसके झोपड़े की दीवाल का सटा होना हो शायद। संतोष भईया जिस मकान में रहने आये थे वो उस गली के अन्य मकानों की उस समय की कीमत से आधे दाम में बिक रहा था। हो सकता है उस मकान को संतोष भईया के पिताजी ने इसीलिए खरीद लिया हो क्योंकि उनका परिवार भी हम किरायेदारों के परिवार की तरह साधारण ही लगता था।

अपनी ऐनक की समस्या लेकर शाम को ही मैं संतोष भईया के समक्ष प्रस्तुत था। “क्या दोस्त! इतनी सी बात से परेशान हो, आओ मेरे साथ”, इतना कहकर संतोष भईया मेरा हाथ पकड़कर अपने घर की ओर चल दिए। “तुम रुको, मैं अभी आता हूँ”, इतना कहकर वह अपने घर के अन्दर चले गए। लौटे तो उनके हाथ में एक ऐनक थी, बिलकुल वैसी ही जैसी हमें चाहिए थी। “देखो इससे काम चलेगा तुम्हारा”, ऐनक मेरे हाथ में रखते हुए उन्होंने पूछा। मुझे और क्या चाहिए था। धन्यवाद के साथ उसे रख लिया। मैंने उनकी आँखों में देखा जो शायद उस वक़्त कह रही थीं कि नाटक के बाद इसे लौटा देना हालाँकि मुँह से एक शब्द नहीं बोला था उन्होंने। शायद उन्हें ये पूरा भरोसा था मुझ पर कि काम पूरा हो जाने के बाद मैं अवश्य ही उन्हें उनकी ऐनक वापस कर दूँगा। मैंने भी लौटा देने का कोई आश्वाशन नहीं दिया क्योंकि निःसंदेह मैं वापस ही करता और ये भी पूर्ण विश्वास था की संतोष भईया भी इस बात से आश्वस्त होंगे। संतोष भईया को यधपि नाटक देखने का अवसर नहीं मिला। उनका पूरा परिवार 20 तारीख को ही कहीं चला गया था और फिर वो लोग फरवरी में ही वापस आ पाये थे। बाद में पता चला कि किसी पारिवारिक मृत्यु के चलते वो लोग अपने गाँव गए थे।

नाटक के प्रदर्शन और विषय-वस्तु एवं संवाद को बहुत सराहा गया। जब अभिवावकों को पता चलता था कि स्क्रिप्ट से लेकर प्रबंध-सज्जा, ध्वनि-संयोजन तक सबकुछ बच्चों का ही किया हुआ है तो और सराहना प्राप्त होती। हम बच्चों की ख़ुशी का पारावार न था। परन्तु इन सबके बीच वो भी हुआ जो होने की बिलकुल भी सम्भावना नहीं थी। जब सारे बच्चे नाटक की प्रॉपर्टी इकट्ठे कर रहे थे तो पता नहीं कैसे उस ऐनक की एक कमानी अपनी जड़ से निकल गई। चश्मा अब एक कमानी का था। दूसरी कमानी वहीँ टूटी हुई पड़ी थी। बाल-सुलभ मन ज्यादा सोच नहीं पाता है। मैंने सोचा कि अब संतोष भईया को क्या मुंह दिखाऊंगा। क्या सोचेंगे वह कि एक छोटा सा सामान नहीं संभाला गया मुझसे। घरवालों से भी ये कहने का साहस नहीं था कि चश्में की मरम्मत करवा दें। मेरे साथ-साथ मेरे सहपाठी भी परेशान थे, आखिर वोही बालमन तो उनके अन्दर भी था। उस स्कूल में पैसे साथ ले जाना भी एक अपराध था। किसी की जेब से तलाशी में पैसे निकल आये तो पेनल्टी, सजा और अभिभावकों से शिकायत होती थी। अब क्या किया जाए। ऐसे में विनय और धर्मेन्द्र आगे आये और कहा कि फ़िक्र मत करो यहीं पास में चश्में की दुकाने हैं वहां चलकर सही करवा लेते हैं। “पागल हो क्या तुम लोग! कोई भी मुफ्त में क्यों करेगा मरम्मत ऐनक की, पैसे कहाँ से आयेंगे”, मैंने कहा। “संतोष भईया को क्या मुंह दिखाऊंगा ये टूटा चश्मा ले जाकर”, मैंने गहन सोच में चिंतामग्न होकर आगे जोड़ते हुए कहा। मैं इस उधेड़बुन में ही था कि तभी धर्मेन्द्र ने अपनी मुठ्ठी खोल दी जिसमें एक नोट दबा हुआ था। नोट देखकर मैं डर गया कि किसी टीचर ने देख लिया तो सजा मिलेगी। आश्चर्य मिश्रित भाव से मैंने पूछा, “अरे तुम लोग मरवाओगे क्या, पता है न कि इस स्कूल में पैसे लाने की इजाजत नहीं है, और ये कहाँ से मिले तुम लोगों को पैसे”। मैंने ऐसे प्रश्न किया जैसे धर्मेन्द्र और विनय वो पैसे कहीं किसी से छीन कर लाये हों। “मेरी मम्मी ने दिए हैं, नाटक के बाद। खूब सारी तारीफ के बाद। समझ लो कि ईनाम दिया है मम्मी ने हम सब के लिए”, धर्मेन्द्र ने कहा। धर्मेन्द्र के पिताजी शहर के नामी-गिरामी वकील थे और लिहाज़ा वो अच्छे-खासे संपन्न परिवार से था। “सोचा तो था कि हम सारे सहपाठी मिलकर आज आगरा स्वीट्स में चलकर पार्टी करेंगे पर अब चूँकि ये ऐनक दुरुस्त करना ज्यादा आवश्यक है तो इन पैसों को इसी काम में उपयोग कर लेते हैं”, धर्मेन्द्र ने अफ़सोस मिश्रित भाव के साथ कहा था। उन पैसों की सहपाठियों के पास मौजूदगी और उनका चश्मे की मरम्मत के लिए उपयोग का प्रस्ताव मेरे लिए संजीवनी की तरह था। अगले कुछ मिनटों में, धर्मेन्द्र, विनय, शिव, मनोज और मैं ऐनक की मरम्मत के लिए एक चश्मे की दुकान पर थे। “ये चश्मा तो बहुत पुराने अंदाज़ का है, ये मुझसे रिपेयर नहीं हो पायेगा”, ये कहते हुए जब चश्में वाले ने चश्मा हमें वापस किया तो हम सभी में अभी-अभी जगा उत्साह ठंडा पड़ने लगा। ”भईया क्या कहीं और दिखाने पर सही हो सकता है क्या”, हमारे ऐसा पूछने पर उसने कहा कि मुझसे नहीं हो पायेगा कहीं और दिखा लो शायद ठीक कर दे कोई। घंटो एक दुकान से दूसरी दुकान तक भटकते-भटकते हमारी उम्मीदें कम होते-होते समाप्त हो चुकीं थीं। कोई और चारा नहीं था। टूटे हुए चश्मे को लेकर अपने घर आ गया। इस घटना से नाटक के सफल आयोजन की ख़ुशी भी जाती रही थी।

कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। एक दिन संतोष भईया ने कहा कि सुना है तुम्हारा नाटक तो बहुत अच्छा रहा। नाटक का एक शो मोहल्ले में भी कर दो तो हम सब भी देख लेंगे। “जिसने-जिसने भी तुम्हारे नाटक को देखा है, उसने-उसने बहुत तारीफ की है”, उन्होंने तारीफ़ करते हुए कहा। संतोष भईया के उत्साहवर्धक शब्द भी मेरे अन्दर के पाप-बोध के कारण कुछ भी असर नहीं कर रहे थे। “नाटक हो गया है तो मेरा चश्मा लौटा दो”, संतोष भईया ने कहा। “वो ऐनक मेरे दादाजी की निशानी है”, संतोष भईया ने जोड़ा। मैनें मन ही मन निश्चय किया कि चाहे जो परिणाम हों घर पर बताकर ये चश्मा ठीक करवा कर ही रहूँगा। उनके दादाजी का टूटा हुआ चश्मा वापस देकर संतोष भईया को दुखी नहीं कर सकता। “अरे! वो ऐनक विनय के पास रह गया है और विनय एक हफ्ते के लिए अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ गया हुआ है। जैसे ही वह लौटेगा मैं चश्मा लौटा दूँगा”, मैंने उस परिस्थिति के लिहाज़ से अपनी समझ से सर्वश्रेष्ठ बहाना मारा। मेरा इरादा उस एक सप्ताह की अवधि में चश्मे को दुरुस्त कराने का था। घर पर बताया तो मेरे विश्वास के उलट पिताजी सहर्ष ही ऐनक को दुरुस्त करवाने को तैयार हो गए। पिताजी का भी मानना था कि किसी की अमानत आपके पास हो तो उसे सही-सलामत वापस करना ही सज्जनता है। आनेवाले रविवार को इस कार्य हेतु तय कर दिया गया।

मरम्मत के बाद चश्मा लेकर ख़ुशी-ख़ुशी मैं संतोष भईया के घर पहुँच चुका था। डोरबेल बजाने पर एक महिला ने दरवाजा खोला। “क्या चाहिए बेटा”, उस महिला ने प्रश्न किया। मैंने संतोष भईया के बारे में पूछा तो पता चला कि उनका परिवार आनन-फानन में मकान उस महिला को बेचकर अपने गाँव चला गया है और कोई संपर्क का जरिया या पता आदि भी छोड़कर नहीं गया है। “पता नहीं बेटा ऐसा क्या हुआ कि इतना सस्ता बेंच दिया उन्होंने मकान। जरूर कोई मुसीबत रही होगी। सुनते हैं कि गाँव से संतोष के दादाजी भी काफी आर्थिक मदद करते रहते थे पर अभी करीब महीना भर पहले वह भी गुजर गए। उनके गुजर जाने पर संतोष की बीमारी और बढ़ गई। बहुत ज्यादा इमोशनली अटैच था वह अपने दादाजी से”, वह महिला जानकारी दे रही थी। “ऐसी क्या बीमारी थी संतोष भईया को”, मेरा दिल डूबा जा रहा था, उस स्थिति में ये मेरा सहज सवाल था। “ये तो पता नहीं, पर सुनते हैं कि इस बीमारी की वजह से काफी खर्च होता था उनका। दादाजी की मदद भी रुक गई तो और मुश्किल हो गई। सुनते हैं कि इस शहर में भी संतोष के पिताजी पर बहुत कर्ज चढ़ गया था। इसीलिए बिना किसी को अपने अगले पते की खबर किये चुपचाप सब-कुछ बेचकर शहर छोडकर चले गए। “पर बेटा हुआ क्या है”, उस महिला ने पूछा। उस महिला के प्रश्न का उत्तर देना जरूरी नहीं था परन्तु फिर भी मैंने कहा कि चूँकि संतोष भईया आजकल खेलने नहीं आ रहे हैं इसलिए उनकी खोज-खबर लेने आ गया था और ये कहकर फटाफट वहां से चल दिया। लौटते समय दिल डूबा जा रहा था। क्या बीमारी होगी संतोष भईया को जो इतना खर्च होता है उनकी बीमारी पर। तो संतोष भईया अपने दादाजी की मृत्यु पर अपने गाँव गए थे पिछले महीने। जिन दादाजी को वह इतना चाहते थे उनकी निशानी मेरी वजह से उनसे दूर हो गई। इतना सब होने पर भी कितने हंसमुख थे वह। कभी भी किसी बात का शक नहीं होने दिया। काश! मैंने संतोष भईया से ऐनक के बारे में सच-सच बता दिया होता तो उनके दादाजी की निशानी उनके पास रह जाती। भारी मन से घर वापस आया। माँजी ने खाने को पूछा तो सब्र का बाँध टूट गया और उन्हें सब-कुछ बता दिया कि कैसे एक ग्लानि-बोध के चलते एक इमोशनल बीमार बच्चे से उसके दादाजी की निशानी छीन ली थी मैंने और वह दादाजी जोकि अब उससे बहुत दूर जा चुके थे। मैं फूट-फूट कर रोते हुए अफ़सोस, ग्लानि और अपराध-बोध के दलदल में धँसता चला जा रहा था। पिताजी घर आ चुके थे। मुझे दिलासा दिलाई जा रही थी कि चिंता मत करो तुम्हारे दोस्त को ढूंढकर उसे उसके दादाजी की निशानी सौंप देंगे, तुम भी चलना साथ में। पर मुझे पता था कि मेरे संतोष भईया, मेरे दोस्त मेरी पहुँच से दूर जा चुके थे और अब इस जीवन में कभी नहीं मिलने वाले थे। सबसे ज्यादा दर्द इस बात का था कि मेरी वजह से एक पोते से उसके प्रिय दादाजी की निशानी छिन गई थी। दुकान से मरम्मत के साथ दुकानदार ने चश्मे को अच्छे से चमका भी दिया था। धूप पड़ने से चमकते हुए चश्मे के फ्रेम पर दो सितारे से चमक बिखेर रहे थे। अपनी आँखों में आँसू भरे हुए मैंने चश्मे को उठाया और चूमना शुरू कर दिया। संतोष भईया मैंने तुम्हारे दादाजी की निशानी छीन ली परन्तु तुम जाते-जाते मुझे अपनी निशानी देकर जाना नहीं भूले। संतोष भईया, तुम्हारे दादाजी की निशानी अब मेरे लिए तुम्हारी निशानी बनकर हमेशा मेरे पास रहेगी। पर आँखों से बहते हुए अश्रुओं पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं था, इसलिए वो लगातार बहते रहे।

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

9 Likes · 11 Comments · 1807 Views
Books from दीपक नील पदम् { Deepak Kumar Srivastava "Neel Padam" }
View all

You may also like these posts

परछाई
परछाई
Dr Archana Gupta
हनुमंत लाल बैठे चरणों में देखें प्रभु की प्रभुताई।
हनुमंत लाल बैठे चरणों में देखें प्रभु की प्रभुताई।
Prabhu Nath Chaturvedi "कश्यप"
सुनो सखी !
सुनो सखी !
Manju sagar
शून्य ही सत्य
शून्य ही सत्य
Kanchan verma
*शिक्षक जिम्मेदार, देश का धन है असली (कुंडलिया )*
*शिक्षक जिम्मेदार, देश का धन है असली (कुंडलिया )*
Ravi Prakash
ठुकरा के तुझे
ठुकरा के तुझे
Chitra Bisht
"आय और उम्र"
Dr. Kishan tandon kranti
Student love
Student love
Ankita Patel
बात बहुत सटीक है। आजकल का प्रेम विफल होने का एक मुख्य कारण य
बात बहुत सटीक है। आजकल का प्रेम विफल होने का एक मुख्य कारण य
पूर्वार्थ
"बस तेरे खातिर"
ओसमणी साहू 'ओश'
पलकों की दहलीज पर
पलकों की दहलीज पर
RAMESH SHARMA
शाम हुई, नन्हें परिंदे घर लौट आते हैं,
शाम हुई, नन्हें परिंदे घर लौट आते हैं,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
अफ़वाह है ये शहर भर में कि हमने तुम्हें भुला रक्खा है,
अफ़वाह है ये शहर भर में कि हमने तुम्हें भुला रक्खा है,
Shikha Mishra
Poem
Poem
Prithwiraj kamila
नज़र नहीं आते
नज़र नहीं आते
surenderpal vaidya
नेता जब से बोलने लगे सच
नेता जब से बोलने लगे सच
Dhirendra Singh
नव वर्ष की बधाई -2024
नव वर्ष की बधाई -2024
Raju Gajbhiye
जादू था या तिलिस्म था तेरी निगाह में,
जादू था या तिलिस्म था तेरी निगाह में,
Shweta Soni
आज अंधेरे से दोस्ती कर ली मेंने,
आज अंधेरे से दोस्ती कर ली मेंने,
Sunil Maheshwari
वर्ण पिरामिड
वर्ण पिरामिड
Rambali Mishra
ठहर कर देखता हूँ खुद को जब मैं
ठहर कर देखता हूँ खुद को जब मैं
सिद्धार्थ गोरखपुरी
!!भोर का जागरण!!
!!भोर का जागरण!!
जय लगन कुमार हैप्पी
अनमोल मोती
अनमोल मोती
krishna waghmare , कवि,लेखक,पेंटर
भीष्म के उत्तरायण
भीष्म के उत्तरायण
Shaily
पड़ोसन के वास्ते
पड़ोसन के वास्ते
VINOD CHAUHAN
स्वयं से परीक्षा
स्वयं से परीक्षा
Saurabh Agarwal
ग़ज़ल
ग़ज़ल
आर.एस. 'प्रीतम'
डॉ अरूण कुमार शास्त्री
डॉ अरूण कुमार शास्त्री
DR ARUN KUMAR SHASTRI
उठो भवानी
उठो भवानी
उमा झा
ठहर गया
ठहर गया
sushil sarna
Loading...