निशाँ ढूंढते हैं…..
लोग मेरी ज़िन्दगी का निगेहबाँ ढूंढते हैं…
अफसानों में मेरे इश्क़ का जहॉं ढूंढते हैं…
दो पहर रात बाकी है सूली को अभी से….
गिरह लगाने को गर्दन पे निशाँ ढूंढते हैं….
मोहब्बत उसकी से ख़ौफ़ज़दा है सब इतने…
हर अफ़साने में उसीकी ही दास्ताँ ढूंढते हैं….
न सोचा सलीब पे लटकाने से पहले जिसको…
रहनुमाई को अब हर गली मकाँ ढूंढते है…
तिनका-२ तक फूंक डाला आशियाँ मेरे का…
राख के ढेर में अब ‘चन्दर’ के निशाँ ढूंढते हैं…..
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/सी. एम्. शर्मा