निर्वासन में: ईशबोध के खोज में :
निर्वासन में: ईशबोध के खोज में :
अब तक मैं १७ वर्ष का हो चुका था , और एक बार फिर अज्ञात अंतहीन ईश की खोज कि ओर मेरा झुकाव आ गया. लोग फिर से मुझे चिढ़ाने लगे ।
पर यह तो मुझे पता ही नहीं था कि कहां और कैसे शुरू किया जाए, इस पर बहू विचार करने पर केसरवस्त्र पहनने के साथ शुर करने का विचार आया। पहले यह समझने के लिए कि केसर वस्त्र का शरीर पर फिर मन पर क्या प्रभाव पड़ता है!
और मैंने अपने छोटे भाई को अपना इच्छा, ईश की खोज, निर्वासन में केसर वस्त्र धारण का विचार बता दिया.
और निर्वासन के लिए भगवा पहन कर निकला पड़ा, जो की 45 दिनों के समय के प्रयोग के लिए था।
(मां विदेश में थीं इसलिए मैदान साफ था)।
मैं अपने साथ सिर्फ दो पुस्तक लेकर अपने निर्वासन स्थान पहुंच गया ।
1. पर्ल्स ऑफ ट्रुथ, 1940 के दशक में प्रकाशित, जिसमें दुनियां के सभी धर्मों का संक्षिप्त विवरण है- यह बताते हुए कि वे कब, और कहां से शुरू हुए, तथा उन धर्मों के दार्शनिक सिद्धांत, उस धर्म के भौगोलिक, राजनैतिक स्तिथी व इन दोनों के प्रभाव से सामाजिक व्यवस्था, एवं धार्मिक क्रिया कर्म के रीती नीति का वर्णन उल्लेख करती हैं.
2. ये किताब “स्वामी विवेकानंद” के अपूर्व एवं आश्चर्यजनक शब्द के रूप से हमारे धर्म का कुल सार व्यत्त करती हैं.
पहली किताब ने मुझे दूसरे धर्म की अंतकर्णर्दृष्टि दी; दूसरी किताब ने मुझे अपने धर्म आदि सनातन को समझने की तथा दूसरे धर्मों और हमारे धर्म में क्या अंतर है।
और श्री विवेकानंद के इस पुस्तक ने मुझे ईश बोध के पथ का मार्ग दर्शित किया की मुझे कहां से शुरू करना चाहिए. मंत्र आदि जाप का मेरा कोई ज्ञान नही था।
यक्ष मंत्र था, मन के चंचलता को पूर्ण रुप से स्तिर करना, अर्थात कुछ भी नहीं सोचना.
मैं मन ही मन बहुत हँसा था, ये कौन सी बड़ी बात हैं. बिना समय बर्बाद कर मैं पद्मासन स्तिथी में बैठ, अपने आंखे बन्द कर मन में दृढ़ संकल्प किया, कुछ भी नहीं सोचना औऱ न कोई सोचा आने देना…..
हैं भगवान! 15 सैकण्ड भी नहीं गुज़रे, मन है की कुछ न कुछ विचारो में भटकता ही जा रहा हैं. बहुत कठिन हैं मन को विचरण से रोकना. कभी कुछ भावनाओ से लिप्त… कभी कुछ…..
सुबह से लें कर शाम तक कम से कम 50/60 बार बैठता, पर कुछ ही सेकंडो में मन भटक जाता था…..
पर मैंने दृढ़ संकल्प किया था कर के रहूंगा, फिर धीरे धीरे मन चितन हीन समय के क्षण… जी क्षण बढ़ने लगे, औऱ करीब 15 दिन बाद मिंटो मैं.
मन एक अद्धभुत शून्यता में विचरण होने लगा. यह पारलौकिक ध्यान का वह मार्ग था / है जो मुझे जीवन की संपूर्ण धारणा की अमूर्त प्रारम्भ के बहुत समीप लें आया था।
मुझे जो मिला, इस पूर्ण गभीर ध्यान ने क्या दिया या मैं क्या कर सकता हूं, इस प्राप्त ज्ञान व शक्ति से ; यह इस कहानी का हिस्सा नहीं है;
कहानी यह है कि “एक मन अपने शरीर के इंद्रियों के पूर्ण नियंत्रण से अलग कर, और स्वं को पूरी तरह से सर्वोच्च शक्ति के अनंत, शून्य में विभोरित कर ईशाँग हों जाने का हैं. अर्थात ईश बोधित हों जाना .
ईश बोध।
ईश बोध एक सिधे अंतकरण संचित अनुभव है , जो किसी भी आध्यत्मिक एवं आपवादिक तर्क परिभाषा से वंचित है |
यह इन्द्रियबोध , ज्ञान या मन-क्षेप (मनौद्वेग) नहीं है |
यह आलोकिक अनुभूती है | यह अनुभती प्राप्त एंव अनुभती समर्पित मानव को ईश स्वं का निराकार एवं अंतहीन ब्रह्म के असत्वित से आलोकिक करते हैं|
तब इस मानव की संक्षा ईशांग अर्थात ईश का अंग हो जाता है तथा यह मानव बहु पज्यनिय स्थान की प्रप्ती करते हैं|
हमारे वेदों चार महावाक्य हैं, जो इन चार वेदों का पूर्ण निष्कर्ष हैं.
1. प्रज्ञानं ब्रह्म – “यह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है” – ऋग्वेद
2. अहं ब्रह्मास्मीति – “मैं ब्रह्म हूॅे” – यजुर्वेद
3. तत्त्वमसि -“वह ब्रह्म तु है” – सामवेद
4. अयम् आत्मा ब्रह्म -“यह आत्मा ब्रह्म है” – अथर्ववेद
मैं सम्पूर्ण रुप से ईश में समर्पित एवं ईश मेरे में समर्पित स्तिति में प्रवेश कर गया था.
काल गति स्तिर…. न भूत , न भविष्य औऱ न ही मायाबी बर्तमान…..
न भूख लगती थी, न प्यास….
समय बीतता गया, फिर एक दिन, मेरा भाई 45 दिन पूरे होने पर आये, औऱ मुझे हमारे परिवार एवं माँ कि स्तिथी बताई, क्योंकि मेरे भगवा एवं निर्वासन अधिनियम के कारण सम्पूर्ण परिवार में बहुत हंगामा हों गया था, औऱ मेरी माँ को पता चल तो वह विदेश से वापस आ गई थी.
एक क्षणिक मेरी इच्छा हुई की भाग जाऊ, लेकिन मैंने अपनी माँ को बहुत चाहता था , जो वापस आ गई थी, यह जानकर कि मैंने क्या किया है. तथा मैं अपनी माँ को अपना गुरु, मेरी देवी का सम्मान देता हूँ …… माँ से मिलने चल पड़ा ?