निर्लज्ज
आत्मग्लानि होती है एक चीज
जो निर्लज्जों को नहीं होती
निकल पड़ते हैं
दुनिया को सिखाने
पर रत्तीभर भी उसके अंश
उनमें नहीं होती ।
हम जो करते हैं
हम जो बोलते हैं
हम जो सोचते हैं
हम जो लिखते हैं
उससे कभी-कभी आत्मग्लानि होती है
जो निर्लज्जों को नहीं होती ।
आत्मग्लानि आत्मसुधार को प्रेरित करती है
फिर ध्यान अपने दोषों पर जाता है
उन दोषों को दूर किए बिना
दूसरों को कुछ कहना
जाएज नहीं लगता है
पर निर्लज्जों को ऐसा नहीं लगता है ।
निर्लज्ज किसी मूल्य पर
सफलता चाहते हैं
वो हर अनैतिक तरीके से
नैतिक बात कर जाते हैं ।
बड़ बोलेपन से लाभ है
तो यही सही
मूल्यों से गिरकर
कुछ छू सकें ऊंचाई
तो इसमें नहीं कुछ बुराई
लाभ लाभ लाभ
बस यही एक सही ।
बहुत लिखा जा रहा
इस युग में
पर बदलाव
नगण्य रही ।
दोष पढ़ने वालोंं का नहीं
लिखने वालों में ही रही
बड़ी बात, शिक्षाप्रद !
कहीं उनसे झलकती नहीं ।
लोगों में दुविधा बड़ी
कहने को कुछ
करने को कुछ
समझ उनकी कुछ ऐसी बढ़ी ।
हल्की हो गयी
हर मूल्यवान बातें
दूसरों के लिए कुछ
अपने लिए कुछ
ऐसे ही निर्लज्ज होते ।।।