निर्मम !क्यूँ ऐसे ठुकराया…
निर्मम ! क्यूँ ऐसे ठुकराया…
निर्मम ! क्यूँ ऐसे ठुकराया
जरा भी मुझपे तरस न आया
खड़ी रही मैं द्वार तुम्हारे
निर्मल स्नेह- डोर सहारे
थक गयी आस, दरस न पाया
पलक-पाँवड़े बिछाए मैंने
आरती- दीप सजाए मैंने
जलद नेह का, बरस न पाया
कितने फागुन बीते यूँ ही
कितने सावन रीते यूँ ही
हाय! मिलन का,बरस न आया
कितने तूने गले लगाए
छूकर पारस खूब बनाए
खड़ी दूर मैं परस न पाया
निर्मम ! क्यूँ ऐसे ठुकराया….
– डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)