निरीह गौरया
आज सुबह प्रार्थना के बाद जब विश्राम के लिये चली तो पंखुरी की चीं ची ने मुझे आवाज़ दी आँख में आँसू थे मैंने पूछा क्या हुआ ?
जो उसने कहा सुनकर मन लज़्ज़ा और क्रंद से भर गया ।
आप भी सुनिये और कुछ करिए भी
सुन हे मनुष्य, मैं निरीह गौरया
जब से शुरू हुई आधुनिक प्रगति
कभी किसी को मेरा ख्याल न आया
अब घर में माँ भी आटे की चिड़िया नहीं बनाती
मैं गौरया हूँ सुत को नही बताती
अरे इन ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं ने
मुझे आंगन से फुर्र कर दिया
इस आधुनिकता ने घर से आंगन हटा दिया
अब तो कुछ खलिहान बचे है
पर जीवित कैसे रहूँ मैं वहां पर भी कीटनाशक इतने है
जो भी खाती हूँ उसमें ज़हर होता है ह
ऐ मानव मूर्ख, तू भी फल समझ जिसे खाता है
खो रही हूँ अस्तित्व मैं धीरे धीरे पर तेरी संस्कृति भी खो रही है
तुझे पता है तक्षशिला में मेरा उल्लेख हुआ था
नालन्दा में मैंने भी भारत का उत्कर्ष देखा है
इन कल कारखानों ने सब नष्ट कर दिया
हे प्राणी श्रेष्ठ मेरे अस्तित्व के साथ साथ मानवता भी सिसक रही है
तुझे दिखाई नहीं देता बचपन की उत्सुकता मर रही है
हे मनुज श्रेष्ठ मैंने ये जाना तू ईश्वर तुल्य कृति है
यदि तू चाहे तो बचा सकता है मुझे,सभ्यता को
गाय को भी मेरे अन्य जीव जन्तु साथियों को भी
देख मान तुझे ही ईश्वर मैं करती हूँ प्रार्थना
बचा ले खुद को खुद के अर्थ को इस प्रकृति को
जो तुम्हारी है तुम्हारे लिये है मेरी ची चीं में बचपन है
तेरा प्यारा दर्पण है भविष्य का चिंतन है
धन जीवन नहीं ब्रांड पहचान नहीं है
पहचान है विचार उनकी श्रेष्ठता मानवता
मैं निरीह गौरया,मैं तो निरीह गौरया