नियत समय संचालित होते…
नियत समय संचालित होते…
नियत समय संचालित होते,
कुदरत के व्यापार।
नहीं किसी को द्वेष किसी से,
नहीं किसी से खार।
नियत सभी की सीमाएँ हैं,
नियत सभी के कर्म।
सूरज-चाँद-सितारे-नभ-सरि,
निभा रहे नित धर्म।
अस्वीकृति का कभी किसी में ,
उपजा नहीं विचार।
कुदरत से जो मिला जिसे है,
सहज उसे स्वीकार्य।
बिना स्वार्थ जगहित रत प्रकृति,
देखो तो औदार्य।
थाल सजाए स्वाद अनूठे,
लिए खड़ी साकार।
कार्य जिसे जो मिला नियति से,
उसे निभाना धर्म।
काबिलियत है किसमें कितनी,
कहते उसके कर्म।
चलना पथ पर सच्चाई के,
जीत मिले या हार।
रखते हैं सब पृथक् वृत्तियाँ,
हुनर सभी में भिन्न।
नहीं और से गुण तुझमें तो,
काहे होता खिन्न।
कौन यहाँ संपूर्ण जगत में,
किसमें नहीं विकार ?
मूर्ख ! लोभ में क्षणिक सुखों के,
मत कर पाप जघन्य।
कर परहित में अर्पित काया,
करते ज्यों पर्जन्य।
स्वार्थ कुटिल ही बैठा मन में,
भरता तुझमें धार।
सुंदरतम कृति तू ईश्वर की,
बुद्धि ज्ञान संपन्न।
दुर्दशा कर स्वयं ही अपनी,
काहे खड़ा विपन्न ?
लौट प्रकृति की ओर मनुज, तो
माँ-सा मिले दुलार।
© डॉ. सीमा अग्रवाल,
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“मनके मेरे मन के” से