नियति (लघुकथा)
नियति
बुधई अपनी पत्नी और बेटी के साथ सुबह पांच बजे नोएडा से अपने गाँव सुल्तानपुर के लिए निकला।पूरा परिवार झोला लिए सरपट भागा चला जा रहा था कि अचानक दोपहर दो बजे बुधई की पुरानी चप्पल ने दम तोड़ दिया। बुधई ने चप्पलें सड़क के किनारे एक तरफ छोड़ दीं और नंगे पांव चलने लगा।पीछे पीछे चल रही बेटी ने जब देखा तो उसने कहा, “बाबा नंगे पाँव इस गर्मी में कैसे चलोगे? पैर जलने लगेंगे।”
“कुछ नहीं होगा बेटा,पैर नहीं जलेंगे । तुम चलते रहो। किसी तरह घर पहुँचना है।”
सुधा ने कहा,नहीं बाबा।” ऐसा करते हैं, कुछ देर कहीं छाँव में रुक जाते हैं।जब धूप थोड़ी कम हो जाएगी तो ज़मीन की तपन भी कम हो जाएगी,तब चलेंगे।”
अरे बेटी, “मेरी चिंता मत कर। हाँ, अगर तुम लोग थक गए हो ,तो कहीं थोड़ी देर रुक जाते हैं।”
“मैं तो आपके लिए कह रही हूँ, बाबा।आप नंगे पैर कैसे चलेंगे ?”
“मैं तो चल लूँगा बेटा,मैं रोज़ नंगे पैर ही चलता हूँ। जब काम पर जाता हूँ तो काम की जगह पर पहुँचकर चप्पलें निकाल कर रख देता हूँ और नंगे पाँव ही दिन भर काम करता हूँ। पाँच बजे जब काम खत्म होता है तो हाथ-पैर धोकर फिर चप्पल पहनकर घर आ जाता हूँ। इसीलिए छः महीने से ये चप्पलें चल रही थी,नहीं तो कब की टूट गई होतीं।”
“चप्पलें जल्दी न टूट जाएँ इसलिए आप पहनते ही नहीं।” केवल दिखावे के लिए घर से पहन कर जाते थे और काम वाली जगह से घर वापस पहनकर आते थे।
नहीं बेटा, ऐसा नहीं है। “चप्पल पहनने की आदत नहीं है। चप्पल पहनकर चलने-फिरने में और काम करने में परेशानी होती है।” तुम बेकार में अपना दिमाग़ चला रही हो बिटिया।
अच्छा ठीक है। नाराज़ मत हो। थोड़ा आराम कर लेते हैं। फिर चलेंगे, तब तक धूप कम हो जाएगी।
नहीं बिटिया, चलते रहो, अगर घर पहुँचना है। “ध्यान रखना मंजिल हौसले से मिलती है, न पैरों से और न चप्पलों से।”
पिता जी की बात सुनकर सुधा चुप हो गई। उसे लगा कि “गरीबों की यही नियति है कि वे नंगे पाँव और खाली पेट ज़िंदगी भर चलते रहें।”
वह माँ – बाबा के साथ झोला उठाए सरपट नियति के साथ कदम-ताल करते हुए सिर झुकाए चलने लगी।
डाॅ बिपिन पाण्डेय