निभाना ना निभाना उसकी मर्जी
साथ सात जन्म का
यह है मेरी अर्जी ,
निभाना ना निभाना
अब है उसकी मर्जी !
थोड़ी सी है खुशी
थोड़ा सा है गम ,
कितने अजब है
तुम और हम !!
कुछ भी गलती हो
माफी का सहारा,
रिश्ता बना रहे अब
तुम्हारा और हमारा !
छोटी-छोटी बातों पर
उसका यूं रूठ जाना ,
अच्छा लगता है मुझे
फिर फिर उसे मनाना !
कुछ तो मिले उसको
हंसाने का अब बहाना ,
इसलिए करना पड़ता
थोड़ा थोड़ा बचकाना !!
अजब उसकी मुस्कान
अजब उसका इतराना
घायल कर ये जाता है
उसका आंख चुराना !!
✍कवि दीपक सरल