निज कर्मों से सौभाग्य गढें
खुद के भीतर मत सिमटो तुम
मन को दो विस्तृत सीमाएँ ।
चिन्तन को आकाश दो ऊँचा
जहां क्षुद्रता न टकराए ।
भावों का जो उदधि मचलता
उस पर बांधो अब तुम बांध ।
गहरे उतरोगे जब खुद में
हो जायेंगें सब ज्वार शान्त ।
सूर्य प्रात ही नित्य चमकता
नित्य रात्रि है उसे हराती
किन्तु रात्रि से नित लड़कर भी
नित सृष्टि में जीवन भरता ।
थका नहीं सदियों से अब तक
नित लड़ता है रातों से
और पुनः कर कान्ति समेकित
उजियारे से जग भरता है।
हुआ उपास्य तभी वो जग में
जब कर्तव्यों पर अडिग रहा ।
नहीं पराभव से मन हारा
पुनः पुनः स्व परिचय देता ।
रात्रि नहीं जब विचलित पथ से
और तजे न कभी स्वभाव ।
दिनकर फिर कैसे हो विचलित
तज दे निज मन के सब भाव ?
किन्तु जरा सा विचलन हमको
पथ से विचलित कर देता है ।
बांध टूट जाता धीरज का
पल में प्रलय मचा देता है ।
आज सीखना है सूरज से
स्व स्थिति पर अडिग रहें ।
पर स्थिति से व्याकुल न हो
निज कर्मों से सौभाग्य गढ़े ।