निगोड़ी ठंड
निगोड़ी ठंड
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गर्मी में ज्यों चुभें मरोरी , हवा चुभीली बह रही रे ।
सूरज बैठा ओढ़ रजाई, हँसे निगोड़ी कह रही रे ।।
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कोहरे की चादर में लिपटे , लगें वृक्ष ठिठुराये से ,
हर पत्ते की नाक बह रही , पुष्प लगें बर्फाये से ,
बैठी कली निकाले घूँघट , चुभन शीत की सह रही रे ।
सूरज बैठा ओढ़ रजाई, हँसे निगोड़ी कह रही रे ।।
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भोर सुहानी लगे न किंचित, प्यारी लगे रजाई रे ,
कैसे पानी लगे खेत में, सन्न देह अकड़ाई रे ,
चहल-पहल ठिठुरी-ठिठुरी सी, दुबकी-दुबकी रह रही रे ।
सूरज बैठा ओढ़ रजाई, हँसे निगोड़ी कह रही रे ।।
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किसी काम में लगे न मनुआ, फिर भी तो है मजबूरी ,
शीत लहर ने और बढ़ा दी, कुछ की रोटी से दूरी ,
रेह लगी दीवार आस की , धीरे-धीरे ढह रही रे ।
सूरज बैठा ओढ़ रजाई, हँसे निगोड़ी कह रही रे ।।
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-महेश जैन ‘ज्योति’
मथुरा ।
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