निंदा रस
तू निंदा रस में क्यो डूबा है
मैं इस निंदा पर शर्मिंदा हूँ …
नीति दया धर्म का उसूल छोड़
क्यो फिजूल की बाते करते हो
अज्ञ अधर्म संग अपकार लिए
क्यो खिलते पुष्प कुचलते हो…१
तू निंदा रस में क्यो डूबा है
मैं इस निंदा पर शर्मिंदा हूँ …
हृदय पल-पल तुमसे ये पूँछेगा
कैसे स्वार्थ में जिंदा रहते हो
छल कपट दंभ की माया से
तुम कैसे लोगो को छलते हो…२
तू निंदा रस में क्यो डूबा है
मैं इस निंदा पर शर्मिंदा हूँ …
क्यो हर स्वर का हर शब्द है तीखा
क्या तुम भूल गए हो जो था सीखा
सत्य अहिंसा का नैतिक मार्ग चुनो
निश्छल निःस्वार्थ प्रेम है अनोखा….३
तू निंदा रस में क्यो डूबा है
मैं इस निंदा पर शर्मिंदा हूँ …
निंदा छोड़ो और कर्मठ इंसान बनो
सज्जन संग जनहित की बात करो
मधुर सरस प्रेम की वर्षा हो वाणी से
असुर गुणों को त्यागकर इंसान बनो..४
तू निंदा रस में क्यो डूबा है
मैं इस निंदा पर शर्मिंदा हूँ…
सत्य कभी भयभीत हुआ क्या
असत्य के हर छल बल दल से
मन शुद्ध रहे इस विशुद्ध युध्द में
गंगा विलग हुई है क्या निर्मल से…५
तू निंदा रस में क्यो डूबा है
मैं इस निंदा पर शर्मिंदा हूँ …