ना मिले गर सज़ा तो ज़ुर्म करने में हर्ज़ क्या है
ना मिले गर सज़ा तो ज़ुर्म करने में हर्ज़ क्या है
कौन जाने इस दुनियाँ में इंसाफ़ की तर्ज़ क्या है
तोड़ा गया इस से पहले के फ़ूल बन के महकती
नन्हीं कली पर जाने इस दुनियाँ का क़र्ज़ क्या है
नहीं जानती जिसे हक़ शान से कहती है दुनियाँ
औरत की तालीम है यही कि उसका फ़र्ज़ क्या है
कोई और ही जीता रहा मेरी उम्र हमेशा
सोचती हूँ ऐसी ज़ीस्त की मुझको ग़र्ज़ क्या है
वो दफ़ा जिसके तहत ये सख़्त सज़ा काटती हूँ में
किसकी लिखी तहरीर है और उसमें दर्ज़ क्या है
मुझे हो चला यकीं आनेवाला है शहर-ए-दिल में
नहीं ज़लज़ला तो ये इसकी ज़मीं पे लर्ज़ क्या है
तिश्नगी अश्क़ों ने बुझाई भूख दर्द ने मिटाई
चरक कोई लुक़मान बताये ‘सरु’ को मर्ज़ क्या है