ना जाने नसीब ने क्या खेल खेला था
पांच भाई होते हुए भी,
मैं अकेला था,
ना जाने नसीब ने क्या खेल ,
खेला था।
माता- पिता रहते हुए भी था अनाथ में,
ना जाने विधाता ने ऐसा ,
साज़िश क्यों रचा,
राजपुत्र हो कर भी मैं सूतपुत्र कहलाया,
लज्जा के वश हो त्यागा थी जो मां ने हमें,
ना जाने उनसे फिर क्यों मिलवाया?
लाड़ प्यार करना था जिन्हें मुझे,
उनको हि प्रतिद्वंद्वी मैं ने बनाया,
ऐसा खेल घिनोना क्यों खेला मेरे संग नसीबा ने?
आज तक ढुंढ रहा हूं उत्तर उसका,
वक्त इतने साथ बिताए,
कभी परिचय क्यों नहीं कराया मुझे अपने से,
जब आई बात आज कर्ज चुकाने की,
मुझको , मुझसे क्यों मिलाया केशव?
तुने ने क्यों ऐसा खेल खेला,
गला लगाने को जाता जिससे मैं,
आज आंखें मिलाने से भी कतराते फिरूगां में।
असमंजस में डाल कर,
फिर से दर्द ऐसा क्यों दिया तुने केशव।
परिवार में रहते हुए भी मैं अकेला था,
ना जाने नसीब ने क्या खेल खेला था?