ना जाने कितनी बार
ना जाने कितनी बार मैंने अपनी
अंदर की इच्छाओं को दबाया।
लेकिन हर बार इच्छाओं का
बीज भीतर मेरे उग आया।
कभी मैं हँसा तो कभी
रोता हुआ खुद कों पाया।
लेकिन समय ने हर कदम
पर मुझे एक पाठ सिखाया।
समय के अनुरूप स्वयं
को ढालना आया।
ढ़लती उम्र के साथ नयी कोपल की
तरह इच्छा रुपी बीज भीतर उग आया।
लेकिन भीतर की इच्छा रुपी
प्यास को नही शांत कर पाया।