‘ना कहने का मौसम आ रहा है’
धूप खिल रही है छँट रही है धूंध
मौसम में अजब सी ये खनक है कैसी
इन्तिज़ार होता था उसके आने की आहट का
पर ख़ुशी दे रही ये आहट तो है जाने के जैसी
ज़िंदगी की उलझनों, परेशानियों से
धुंधला हो रहा है एक पन्ना उसकी यादों का
आँखों में न आँसू हैं न ही उदासी
उस से मिलने की उम्मीद भी नहीं, सपने भी नहीं
उसकी हर बात पर हामी भरने का
अब जी नहीं करता उसपे मरने का
दिन भर उस से मिलने को चलने के दिन
रातों को उसकी यादों में ठहरने के दिन
ये चलना रुकना बदलने का मौसम आ रहा है..
उसे चाहे बिन जीने का मौसम आ रहा है
उसको ‘ना’ कहने का मौसम आ रहा है….
सुरेखा कादियान ‘सृजना’