नासमझ
नासमझ सी ये ख्वाहिशें उम्र तार सजा थी रही झूठे दिलासे दिलाती रही।
ना ज्यादा बड़ी थी ख्वाइश है जिन से जी चुरा लिया जाए ना ऐसी कोई ख्वाइश थी जिन्हें पूरा किया ना जाए।
सुमेर तो पहाड़ों में ही मिलता हम क्यों भूल गए ना समझ सी अपनी ख्वाहिशे अपने ही शहर में ढूंढ रहे।
किसी को नहीं मिलता बना बनाया ख्वाहिशों सा आशियाना किसी को यहां पर।
खुद को सो चूबन देनी पड़ती है लाखों ठोकरें खानी पड़ती है गिर कर खुद ही संभालना पड़ता है यहां पर जब जाकर होती है पूरी ना समझ ख्वाइशें हमारी यहां पर।
दफन कर दी आग दिल की समापर घंटों भर जलकर बुझ गई है ये आग इस जहां पर।
कौन रोता है यहां पर जाने वालों के शब पर निकलते आंसु उन्हीं के जो दिल से जुड़े हैं यहां पर।
मिल जाए कोई अनजान रास्ते पर तो बता देना दुखड़ा अपना उसको वह भी बता देगा दर्द अपना तुझको।
नासमझ सी ख्वाइशों को दफन कर दिया जाए या पूरा कर दिया जाए।
दफन तो सिर्फ यहां पर शब होते हैं जिंदा तो उन्हीं की ख्वाहिश होती है जो ना समझ ख्वाइशें पूरी करते हैं….।।