नालन्दा
आखिर वह दिन आ ही गया
जिसकी
आठ सौ से अधिक वर्षों से थी प्रतीक्षा
वह समय आ गया
जब पूर्ण होगी अधूरी दीक्षा
सोचा था उन्होंने
कि विश्वविद्यालय की इमारत को तोड़ देने
और पुस्तकों को जला देने से
नष्ट हो जाएगी हमारी संस्कृति
बदल जाएगी हमारी पीढ़ियों की प्रकृति
लेकिन, नहीं पता था उन्हें
कि पाण्डुलिपियों की राख सदियों तक
अन्दर ही अन्दर रचती रहेगी नए श्लोक
इमारत के टूटे पत्थर चुपचाप गढ़ते रहेंगे
एक नई भव्य इमारत की नींव
नालन्दा के ध्वंसावशेष
हर दिन हर पल
चीख-चीख कर कह रहे थे
जले पुस्तकालय में ग्रन्थों की राख
खाद बनकर देती रहेगी पोषण
कत्ल किए गए अनगिनत आचार्यों की रक्त-धारा
सिंचित-पुष्पित-पल्लवित करती रहेगी ज्ञान-तरु को
आतताइयों द्वारा इमारतें
तोड़ी जा सकती हैं
पुस्तकें जलाई जा सकती हैं
लेकिन याद रहे
आठ सौ वर्षों के बाद भी
फिर उठ खड़ा होगा कोई आचार्य शीलभद्र
जो
उन ग्रन्थों और पाण्डुलिपियों की राख से
ढूँढ़ निकालेगा
शोध के नये आयाम
पुनः प्रकाशित करेगा सम्पूर्ण विश्व को
ज्ञान के ‘असीम’ आलोक से
और
देगा दुनिया को पैगाम
कि
ज्ञान अमर है
खिलजियों के जलाने से
सिद्धान्त और विचार नहीं जला करते
आचार्यों को कत्ल कर देने से
नालन्दा नहीं मरा करते।
✍🏻 शैलेन्द्र ‘असीम’