नारी
नभ में घुमड़ते हुए उन घने बादलों को
मैंने हमेशा नदियों में सिमटते देखा है,
फूलों सी चंचल इठलाती उस नारी को
कई बार मैंने अंगारों पर सुलगते देखा है,
सृजन करती है जो एक नए जीव का उसे,
मैंने छलकते दर्द में भी मुस्कुराते देखा है,
अपनों के सपने हो सभी पूरे यही चाहत,
उसके सपनों को रेत सा बिखरते देखा है,
समय की चक्की में कई बार पिसती है वो,
जैसे प्रकृति का रूप बदलता है हरपल यहाँ,
उसका भी मैंने नया रूप बदलते देखा है,