*नारी*
टूटती रही,बिखरती रही,
फिर भी मैं सँवरती रही,
नारी हूँ ना???
किसे कहूँ दिले-हाल अपना
परिवार की खुशियों की खातिर,
पल-पल बस मैं ही मरती रही।
नहीं चाहिए सहानूभूति किसी की,
खुद के आत्मबल से ही मैं तो,
हर बार नई सी बनती रही,
कभी मायके, कभी ससुराल,
सब रिश्तों को जोड़ते-2,
अंदर-अंदर बिखरती रही।
टुकड़ों में ना बाँटो मुझको,
आत्मा बसी हर रिश्ते में मेरी,
जद्दोजहत में सबको खुशी देने की,
बस हर पल खुद ही से कुढ़ती रही।
पर खुद ही में खुदा को पा कर मैं,
फिर से नई सी बनती रही।।
✍स्वरचित
माधुरी शर्मा ‘मधुर’
अंबाला हरियाणा।