‘नारी हूँ’
नारी हूँ मैं!
पर केवल नर का अनुराग बनकर,
नहीं रहना है मुझको।
पल-पल फैलना चाहती हूँ मैं,
क्षितिज और इस धरा पर,
अपनी पहचान बनकर ।
ढक देना चाहती हूँ मैं,
इस कुरूप समाज को,
बन शक्ति का आँचल तनकर।
हरियाली बनकर उगना चाहती हूँ,
ओ मेरे सूर्य!
तुम्हारी राह जाना चाहती हूँ मैं,
प्रकाश और गरमी से भरी हुई,
अनन्त यात्राओं पर ।
कुछ शक्ति दो मुझको भी,
जो जला सकूँ राह के कंटक,
भष्म कर सकूँ समाज मैं फैली
गंदगी को,
शिव का त्रिनेत्र बनकर ।
नारी हूँ मैं!
नहीं रहना है मुझको,
केवल नर का अनुराग बनकर,
नहीं रहना है।
©®✍Gn