नारी (मत्तगयंद सवैया छंद)
मत्तगयंद सवैया छंद
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स्वेद बहा निज का तन से, घर को सुखधाम बनावत नारी।
निर्मल गंग बहा हिय से, अनुराग सदा बरसावत नारी।
रूप अनेक धरे जग में, लछमी बन धाम सजावत नारी।
मातु बनी भगिनी बन के, निज आँगन को महकावत नारी।।
तू वनिता सरिता सम ही, बन नेह -सुधा बरसावत नारी।
कौन कहे अबला तुमको, सबला बन छत्र सजावत नारी।
दो कुल की मरयाद रखे, निज आलय स्वर्ग बनावत नारी।
वंश बढ़े कुलवंत बने, कुल गौरव मान बढ़ावत नारी।।
✍️ पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार