नारी गरिमा
“नारी-गरिमा”
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सोचती हूँ !
जब भी मैं !
एकांत में…….
निर्निमेष होकर
कि आखिर कौन हूँ मैं ?
जो सहती रहती हूँ !
अपने ही तन-मन पर !
कभी अन्याय !
तो कभी शोषण !!
कभी वेदना !
तो कभी दर्द !!
आखिर मुझमें भी है,
गरिमा !!
वह गरिमा !
जो सदियों से मैंने
खुद बनाई है !!
बनाया है मैंने
अपना इतिहास !
और अपनी सभ्यता !
जिस पर नर ही
एकाधिकार रखने लगा है |
तार-तार करता है
मेरी मर्यादा और
मेरी गरिमा को !!
सो नहीं पाती हूँ !
अक्सर रातों को !
जब समझता नहीं कोई ?
मेरे सूक्ष्म जज्बातों को !!
मैं कोसती हूँ !
खुद को
और खुदा को !
आखिर दोष क्या है मेरा ?
यहीं कि – मैं नारी हूँ !!
पर क्यों भूल जाते हैं वो ?
कि मैं ही जीवन-संचारी हूँ ||
मैं सृष्टि………
रखती हूँ दृष्टि !
अपनी ही गरिमा पर !
फिर भी अमानुष
नित्य ढ़हाते रहें हैं !
मेरी इस गरिमा के
हिमालय को !!!
जो कि अटल है !
और मेरा पटल है ||
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– डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”