नारी की वेदना
नारी के अन्तस् की वेदना
क्या समझ पाया कोई
त्याग, बलिदान की मूरत कहलाती
सहनशीलता व धैर्य दिखाती ।।
घर- परिवार की धुरी भी बनती
तन- मन सब पर न्योछावर करती
धूप घनी हो या घोर तूफ़ान
कर्तव्य पथ से न डगमगाती।।
प्रताड़ित होती पल- प्रतिपल
कदाचित् अकारण घात भी पाती
मौन रह अश्रु ही बहाती
तिल- तिल कर वो जलती रहती ।।
सदियों से नारी जाति
सहती है नित वेदना
सिसकती रहती आँचल तले
दु:ख पड़ता इसे सहना ।।
गौतम बुद्ध के गृह त्याग पर
यशोधरा की अनकही व्यथा
चुपचाप सहती रही वो
परित्यक्ता होने की वेदना ।।
लक्ष्मण के वन-गमन पर
उर्मिला का वो महान् त्याग
निर्दोष होने पर भी सही थी
पति- विछोह की अथाह वेदना ।।
चारदीवारी में बंद रह नारी
वेदना की अग्नि में धधकती
चुप रह कर सब कुछ है सहती
मन की बात कभी न कहती ।।
ताउम्र धैर्य का आवरण ओढ़ती
हृदय की टीस कोने में दबाये
परिवार के हित की ही सोचती
जद्दोजहद करती दीख पड़ती नारी ।।
** मंजु बंसल **
जोरहाट
( मौलिक व प्रकाशनार्थ )