Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
22 Aug 2024 · 9 min read

नारी का सशक्तिकरण

नारी का सशक्तिकरण

मनुष्य के समक्ष हमेशा से ही दो प्रश्न रहे हैं, मैं कौन हूँ और मुझे करना क्या है ? सदियों के प्रयास से यहाँ मनुष्य ने यहाँ भावनाओं और प्रकृति के कुछ पैटर्न समझे है, उसने अंतिम सत्य पाने की आशा नहीं छोड़ी है ,उसकी इस कोशिश में जो नारी का स्थान है वहीं उसकी पहचान है, वहीं उसका सशक्तिकरण है ।

विकासवादी मनोवैज्ञानिकों ( evolutionary psychologist) के अनुसार, चिंपाजी के व्यक्तित्व पर उसकी माँ का सीधा प्रभाव पड़ता है ।यदि माँ आत्मविश्वासी है तो बच्चों में आत्मविश्वास सहज ही आ जाता है , और इसके विपरीत हीन भावना से ग्रस्त माँ बच्चों में यह भाव अनजाने ही छोड़ जाती है ।माँ का योगदान इतना महत्वपूर्ण है , यह न तो नर चिंपाजी जानते हैं , न ही मादा चिंपाजी , इसलिए उनके समाज में मादा का स्थान मात्र आश्रिता का है । अल्फ़ा मेल के पास अपना हरम होता है , ताकि वह अपने जीन्स फैला सके । मादा चिंपाजी युवा होने पर अपना दल छोड़कर दूसरे दल में चली जाती है और वहीं अपना पूरा जीवन व्यतीत करती है । अगर हम ध्यान से देखें तो मनुष्य ने भी हज़ारों सालों तक यही जीवन जिया है ।

जो संस्कृतियाँ मातृ प्रधान रही हैं , जैसे कि सिंधु घाटी की सभ्यता, और एकियनस के आने से पूर्व ग्रीस की सभ्यता, क्योंकि पुरातत्ववेत्ता उनकी लिपि को नहीं पढ़ पाए हैं, इसलिए उनके विचारों और जीवन पद्धति के विषय में पूरा अनुमान नहीं लगाया जा सका है , परन्तु प्रतीत होता है यह सभ्यताएँ शांति प्रिय थीं । सिंधु घाटी के खंडहरों में बहुत खिलौने मिले हैं, शायद बचपन बहुत खुशहाल था । इन छुटपुट अपवादों को यदि छोड़ दें , तो पता चलता है सभ्यताएँ मुख्यतः पुरूष प्रधान रही हैं । जहां युद्ध, अनिश्चितता, डर का साम्राज्य रहा है ।

पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने एक और तरह के चिंपाजी को खोज निकाला है , जो कोंगो में रहते हैं और बोनबो के नाम से जाने जाते हैं । इन चिंपाजी का समाज स्त्री प्रधान है , यहाँ नानियाँ, मासियां , बहनें , सब अपने बच्चों समेत इकट्ठे रहती हैं । यहाँ सैक्स स्वतंत्र है, कहा जाता है , दिन में बीस बार सैक्स कर लेना उनके लिए सहज है , और यह बहुत शांति प्रिय समाज है। वैज्ञानिकों ने प्रश्न उठाया है क्या हमारी समस्याओं का समाधान भी फ़्री सैक्स है ?

दस हज़ार वर्ष पूर्व जब कृषि का अविष्कार हुआ, तो दो बातें हुई । पहला सैक्स फ़्री नहीं हो सकता था , क्योंकि इसका अर्थ होता निरंतर मारकाट, इसलिए एक पुरुष, एक स्त्री का संबंध विवाह में रूपांतरित हो गया। यदि स्त्री विवाहिता है तो शेष पुरूष उस पर उसके पति के अधिकार का सम्मान करें, यह एक अलिखित नियम बन गया । दूसरा यह कि अब तक अकाल में , बाढ़ में मनुष्य किसी दूसरे ठिकाने पर जा भोजन पा सकता था , परन्तु अब वह ज़मीन से बंध गया , क्योंकि अकाल, बाढ़ का भय निरंतर बना रहता था , वह भोजन की सुरक्षा के लिए अधिक चिंतित हो उठा । अधिक ज़मीन का अर्थ था अधिक सुरक्षा , और इस भय ने इतना बल पकड़ा कि लालच आजतक बढ़ रहा है ।

बहरहाल, ज़मीन पाने के साधन थे युद्ध, विवाह, और छल । विवाह में दो प्रकार की पद्धतियाँ चली , या तो पत्नी दहेज लाए या फिर पति पत्नी के पिता को धन दे , समय के साथ कन्यादान की प्रथा या फिर पश्चिम में पिता अपनी बेटी का हाथ पति को दे की प्रथा चल पड़ी ।इन बंधनों में स्त्री का अस्तित्व खोता चला गया , अब वह किसी दास से अधिक नहीं थी , उसके लिए इतने बड़े लक्ष्य रख दिये गए कि वह उन्हें पा ही नहीं सकती थी । मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मेनोपोज के समय कम से कम 99% औरतें हीन भावना से ग्रस्त होती हैं । जीवन भर के श्रम के पश्चात जिस नारी को संतोष मिलना चाहिए, उसे विफलता का भाव घेर लेता है । हमारे ग्रह पर प्रत्येक राष्ट्र ने स्त्रियों को किसी न किसी तरह से मानवीय अधिकारों से वंचित रखा है ।

युगों से जब घर में बंद इस महिला का आत्मविश्वास डिगता है तो उसके साथ झुकती है पूरी मानवता । आश्चर्य होता है यह सोचकर कि पुरूष को अपनी माँ , बहन, पत्नी, पुत्री पर होता यह अत्याचार कभी दिखाई क्यों नहीं दिया , और यदि दिया तो इसके विरोध में उसके स्वर ने बल क्यों नहीं पकड़ा? क्या यह पुरूष की अपनी सामूहिक हीन भावना का प्रतीक है , क्योंकि उसके पास यूटरस नहीं है ?

समय बदलता चला गया उपनिवेश वाद के साथ हमारी पुरानी संस्कृतियों का आत्मविश्वास खोता चला गया । अब विचारों का स्थान लिया रूढ़ियों ने , स्त्री घर की लक्ष्मी है, बच्चों की सरस्वती है , और अपने सम्मान में खड़ी होने वाली दुर्गा है । आप सोचकर देखिए, क्या आपने नारी को यह सब बनने की सुविधाएँ दी ? ईसाईयत और इस्लाम ने उसे खुलेआम पुरूषों से कम समझा , धर्म के ठेकेदारों ने उसके मासिक धर्म को अपवित्र ठहरा दिया । ईश्वर भी सोचता होगा , मैंने बेहतर माडल क्यों नहीं बनाया !

सत्रहवीं अट्ठारवी सदी में यूरोप ने पुनः जागरण ( high renaissance) का जन्म हुआ , अब धर्म नहीं तर्क बलशाली हो उठा डेइजम ( Deism) ने धर्म की जगह ले ली , डेइजम का अर्थ है यह सृष्टि कुछ भौतिक नियमों के अनुसार अपने आप चल रही है , इसे बनाने वाले को आप नहीं पा सकते , मात्र गणित के नियमों के अनुसार आप इसके पैटर्न को समझ सकते हैं , धर्म ने कहा था सांसारिक सुखों की ओर मत भागो , यह ईश्वर की ओर नहीं ले जाते , परन्तु तत्कालीन विचारकों ने कहा। , यदि प्रकृति नियमानुसार चलती है तो जो चीज़ हमारा मन चाहता है वह हम करें , क्योंकि यह मन का नियम है और मन प्रकृति है । मन सुख चाहता है , सुख है तकनीक में ,धन में , सुविधाओं में , इसलिए क्यों न अपनी शक्तियों को पूर्णतः यह पाने में लगा दिया जाये । पूंजीवाद का जन्म हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ है उसका धन पर अधिकार है, जो कमजोर है , वह हट जाये, प्रकृति के यही नियम हैं, और यही न्याय है ।

आरम्भ में यह सब बहुत अच्छा था , धन कमाने के लिए नए नए साधन आने लगे , आधुनिक शिक्षा का अर्थ था धन कमाने की योग्यता अर्जित करना । यह स्थिति औरतों के लिए हितकर थी , पहली बार अब वह घर से बाहर निकल आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही थी , परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि इससे उसकी समस्याओं का हल नहीं निकला अपितु उसका रूप बदल गया । हज़ारों सालों से हीन भावना से ग्रसित यह औरत जब बाहर आई तो उसे लगा धन का उपार्जन उसे मुक्त करेगा , और यह औरत ऊँची ऐढी पहनकर पुरूष के क़द तक पहुँचने का प्रयत्न करने लगी । यदि समाज ने पुरूष को खुलेआम पीने की स्वीकृति दी है तो यह भी टकीला पीना अपनी आज़ादी समझने लगी । देर रात तक आफ़िस में बैठकर काम करना अपनी योग्यता और शक्ति का परिचय मानने लगी । पुरूष यदि घर के काम नहीं करता तो यह क्यों करे, बच्चे पालने से अधिक ज़रूरी हो गया घर से बाहर जाकर उस पुरूष रूपी आकृति को जिसका आकार उसके पूरे व्यक्तित्व को घेरे है, से भिड़ना । हाय रैनसैंस के विचारकों की चिंता एक ऐसा तरीक़ा खोजने की थी , जिससे वह सत्य समझ सके , एक ऐसे समाज की रचना की कल्पना थी जिसमें व्यक्ति धर्म से मुक्त हो ज्ञान की खोज कर सके । स्त्रियों की स्थिति उनके चिंतन का विषय था ही नहीं। यह चिंतन स्त्री को स्वयं करना है कि उसका प्राथमिक सुख और दायित्व क्या है , उसे पूंजीवाद, व्यक्तिवाद से हटकर संपूर्ण समाज की भावनाओं और उनके भविष्य की ओर ध्यान देना चाहिए ।

औरत सर्वप्रथम माँ है , जब वह दो महीने के बच्चे को पालनाघर छोड़कर जाती है तो वह यह भूल जाती है कि गर्भावस्था में बच्चे ने मुख्यतः माँ कीं आवाज़ सुनी है । अचानक वह शिशु को इन नई आवाज़ों के कोलाहल में छोड़कर कहाँ जा रही है ? मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि पाँच वर्ष की आयु तक बच्चे की दुनिया का केंद्र उसकी माँ होती है । यदि यह केंद्र उससे अधिक देर तक दूर रहे तो वह न केवल उदास और अकेला हो जाता है , अपितु उसका बौद्धिक विकास भी धीमा पड़ जाता है । बच्चे के जन्म के समय उसका मस्तिष्क मात्र पचास प्रतिशत विकसित होता है , शेष अट्ठारह वर्ष तक होता रहता है । उस विकसित हो रहे मस्तिष्क में कौन सी भावनायें जायें , कौन से विचार जायें , इसका निर्णय क्या आज की माँ नहीं करेगी ? माँ मनुष्य के अस्तित्व की पहली स्वीकृति है , वह बच्चे को इतना स्नेह दे सकती है कि वह ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा , लालच से दूर रहे ।

सोलोन ईसा से छ सदी पूर्व जब ऐथेंस का नायक नियुक्त हुआ तो उसने रातोंरात राजनैतिक तथा अर्थव्यवस्था को बदलने के लिए नियम बना दिए । जिससे आगे चलकर एथेंस का प्रजातंत्र सुदृढ़ हुआ ।स्त्रियों को भी आज कुछ ऐसा ही करना है , उन्हें अपनी सारी हीन भावनाओं को इसी पल त्याग कर भीतर का मनुष्यत्व जगा , नया इतिहास रचना है । स्त्री को सहायता की आवश्यकता होती है बच्चे के जन्म तथा उसे बड़ा करते हुए । हम ऐसे समाज की माँग करें जहां उसकी इस कर्तव्य पूर्ति के लिए आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक सहायता उपलब्ध हो । स्त्री की शिक्षा तथा स्वास्थ्य सर्वोपरी है । आज शिक्षा हमारे घर तक आ गई है । इंटरनेट, यू ट्यूब आप दिन में कुछ समय अवश्य बौद्धिक विकास पर लगायें । मूल्यवान चमड़े के बैग ख़रीदने की बजाय, जिससे गंगा मैली हो जाती है, वह धन अपने आहार तथा व्यायाम पर लगायें ।यदि आप पियर प्रेशर में आएँगी , तो आपका बच्चाभी आयेगा ।आपके ऊपर इस धरा के नवनिर्माण का उत्तरदायित्व है । जब बच्चा बड़ा हो जाय , आप शिक्षित हैं, स्वस्थ हैं , अनुभव ने आपको स्पष्ट चिंतन के योग्य बनाया है , आप अपने लिए नए रास्ते बनाइए, पूरी अर्थव्यवस्था से माँग करिये कि प्रौढ़ स्त्रियों के लिए जाब मार्केट होनी चाहिए ।

पिछले दिनों मैं पेप्सिको की रिटायर सि. ओ इंदिरा नूई का इंटरव्यू सुन रही थी । वे कह रही थी कि नारी को सब नहीं मिल सकता, या तो आप अपना कैरियर बनाइये या बच्चे बड़े करिये । मैं उनसे असहमत हूँ , नारी सब पा सकती है , ज़रूरत है मातृत्व के महत्व को समझकर समाज के ढाँचे को बदलने की । क्या आप ऐसे समाज का निर्माण नहीं करना चाहते जहां धन से ज़रूरी हो जाब सैटिसफैक्शन ?

हज़ारों साल तक औरत दबी रही , शायद इसीलिए मानव समाज एक सुखी समाज का निर्माण नहीं कर सका । सारी तकनीकी उन्नति के बावजूद अशिक्षा , भुखमरी, बीमारी का सम्राज्य है । दुनिया का कोई स्कूल आपको नैतिकता नहीं सिखा सकता , बिज़नेस स्कूल में बिज़नेस तो सिखा सकते हैं किंतु नैतिकता नहीं , और इसका परिणाम यह होता है यहाँ से निकले छात्र जब दुनिया भर में ऊँचे पदों पर आसीन हो जाते हैं तो अक्सर धन कमाने की धुन में भ्रष्टाचार का नया इतिहास रचते जाते हैं । 70 % बिज़नेस आज पारिवारिक है , और फ़ैमिली का बिज़नेस कैसे चलाया जाये, यह शिक्षा कई बिज़नेस स्कूलों में दी जाती है? इस कोर्स का एक बड़ा लक्ष्य है , उत्तराधिकारी को तैयार करना , तो क्या आज हर परिवार को एक नैतिक उत्तराधिकारी नहीं चाहिए?

मुझे पुरूषों से कुछ नहीं कहना, मुझे स्त्रियों से कहना है , क्यों वे अपने आपको पुरूषों की तुला में तुलने दे रही है ? किशोरावस्था में यदि भावनायें स्वस्थ न हों तो किशोर व्यसन के शिकार हो जाते हैं , क्या माँ अपने बच्चे की भावनाओं को सुनकर समझकर प्रेम से स्वस्थ करेगी , या महँगे समर स्कूल में भेज कर ? बहुत सी औरतें बच्चों को छोड़कर इसलिए काम करना चाहती हैं ताकि वह किसी तरह सम्मान पा सकें , मैं उनसे कहना चाहती हूँ , आप अपने आपको स्वीकारें । पहली बार हमें पता चला है कि हमारा एस्ट्रोजन अभिशाप नहीं वरदान है , हमारा ईक्यू पुरूषों से कहीं अधिक है , हमारा आयक्यू उनसे कम नहीं । अपने भीतर की प्रकृति को बाहर की प्रकृति से जोड़िये । आज जब बच्चा मनुष्य से जुड़ने की बजाय गैजेट के साथ जुड़ता है तो अपने आप में एक मशीन होता चला जाता है । सहानुभूति, क्षमा स्नेह? जया दान यह सब माँ के वरदान हैं । सक्षम माँये एक ऐसे समाज का निर्माण करें ? जिसमें जीन एडिटिंग , रोबोटिक, नैनों टेक्नॉलाजी की तरक़्क़ी से अनिश्चितता न जागे , अपितु उसकी संभावना से वहीं सुख जागे जब हमें पहली बार आग को नियंत्रित करने से मिला था ।

शशि महाजन- लेखिका

50 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
आप हमको पढ़ें, हम पढ़ें आपको
आप हमको पढ़ें, हम पढ़ें आपको
नंदलाल सिंह 'कांतिपति'
उम्र के हर एक पड़ाव की तस्वीर क़ैद कर लेना
उम्र के हर एक पड़ाव की तस्वीर क़ैद कर लेना
'अशांत' शेखर
आ जाये मधुमास प्रिय
आ जाये मधुमास प्रिय
Satish Srijan
हर मोड़ पर कोई न कोई मिलता रहा है मुझे,
हर मोड़ पर कोई न कोई मिलता रहा है मुझे,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
जी20
जी20
लक्ष्मी सिंह
'शत्रुता' स्वतः खत्म होने की फितरत रखती है अगर उसे पाला ना ज
'शत्रुता' स्वतः खत्म होने की फितरत रखती है अगर उसे पाला ना ज
satish rathore
लम्हें यादों के.....
लम्हें यादों के.....
कुलदीप दहिया "मरजाणा दीप"
बैठी थी मैं सजन सँग कुछ कह के मुस्कुराए ,
बैठी थी मैं सजन सँग कुछ कह के मुस्कुराए ,
Neelofar Khan
तुझसे मिलती हूँ जब कोई बंदिश नही रहती,
तुझसे मिलती हूँ जब कोई बंदिश नही रहती,
Vaishaligoel
आप सभी को नववर्ष की हार्दिक अनंत शुभकामनाएँ
आप सभी को नववर्ष की हार्दिक अनंत शुभकामनाएँ
डॉ.सीमा अग्रवाल
घर के आंगन में
घर के आंगन में
Shivkumar Bilagrami
वीरांगना लक्ष्मीबाई
वीरांगना लक्ष्मीबाई
Anamika Tiwari 'annpurna '
अपना पन तो सब दिखाते है
अपना पन तो सब दिखाते है
Ranjeet kumar patre
*छल-कपट को बीच में, हर्गिज न लाना चाहिए【हिंदी गजल/गीतिका】*
*छल-कपट को बीच में, हर्गिज न लाना चाहिए【हिंदी गजल/गीतिका】*
Ravi Prakash
*मेरी रचना*
*मेरी रचना*
Santosh kumar Miri
कितने बेबस
कितने बेबस
Dr fauzia Naseem shad
*कभी मिटा नहीं पाओगे गाँधी के सम्मान को*
*कभी मिटा नहीं पाओगे गाँधी के सम्मान को*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
20, 🌻बसन्त पंचमी🌻
20, 🌻बसन्त पंचमी🌻
Dr .Shweta sood 'Madhu'
दुख में दुश्मन सहानुभूति जताने अथवा दोस्त होने का स्वांग भी
दुख में दुश्मन सहानुभूति जताने अथवा दोस्त होने का स्वांग भी
Dr MusafiR BaithA
कभी कभी चाह होती है
कभी कभी चाह होती है
हिमांशु Kulshrestha
विचार और भाव-1
विचार और भाव-1
कवि रमेशराज
श्री गणेश भगवान की जन्म कथा
श्री गणेश भगवान की जन्म कथा
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
"बतंगड़"
Dr. Kishan tandon kranti
भीम राव हैं , तारणहार मेरा।
भीम राव हैं , तारणहार मेरा।
Buddha Prakash
आंखें
आंखें
Ghanshyam Poddar
ॐ নমঃ শিবায়
ॐ নমঃ শিবায়
Arghyadeep Chakraborty
ज़िंदगी से थोड़ी-बहुत आस तो है,
ज़िंदगी से थोड़ी-बहुत आस तो है,
Ajit Kumar "Karn"
पहले वो दीवार पर नक़्शा लगाए - संदीप ठाकुर
पहले वो दीवार पर नक़्शा लगाए - संदीप ठाकुर
Sandeep Thakur
4617.*पूर्णिका*
4617.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
ब्रांड. . . .
ब्रांड. . . .
sushil sarna
Loading...