नारीत्व, समाज और भारतीय संस्कृति
“नारीत्व, समाज और भारतीय संस्कृति ”
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नारी एक शक्ति है -सृजन की शक्ति ,निर्माण की शक्ति । भारतीय संस्कृति में नारी को ‘मांँ ‘का स्थान दिया गया है उसे देवी रूप माना गया है। पौराणिक ग्रंथ ‘नारी ‘, ‘देवी ‘, ‘मांँ ‘को आदर्श मानते हुए उसकी महत्ता को दर्शाते हुए असंख्या लेखों से पन्ने भरे हुए हैं। उसे पूजनीय माना गया है। उसके कोमल /कठोर रूपों का वर्णन किया गया है । शक्ति रूपा नारी जिस रूप में प्रकट होती है ,वह उसी रूप में परिलक्षित होती है ।ममतामयी नारी जब अपने बालक को दूध पिलाती है तो वह वात्सल्य का साकार रूप प्राप्त कर लेती है । वह आदि शक्ति पालन हारी बन जाती है। प्रेम पुंज की स्वामिनी वह नारी मातृत्व भाव से ओतप्रोत हो जाती है। ‘शक्ति ‘सहन शक्ति के घेरे में विचरण करती है। सुकोमल संवेदनाओं के संग सृष्टि में सौंदर्य भरती र्है ।
लेकिन जब उसके अस्तित्व से खिलवाड़ होता है ,मर्यादा भंग होती है, आदर सम्मान खंडित होता है ,तब वह असुरों, पापियों दुष्कर्मियों का वध करने हेतु दुर्गा और काली का रूप धारण कर लेती है फिर उसके साहस और बल के समक्ष कोई नहीं टिक पाता है । यह टिप्पणी हमारे पौराणिक ग्रंथों के आधार पर है । आज सृजन की इस शक्ति को मनुष्य की इस राक्षस वृत्ति /सोच ने मर्यादा के घेरे को तोड़ दिया है ।
हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है भले ही नारी अनेक अधिकारों से लैस है परंतु फिर भी उसे उपभोग की वस्तु मानकर आज बाजार में खड़ा कर दिया गया है ।जितने अत्याचार ,अपमान व शोषण उस पर ढाये गए हैं संभवत किसी सदी में किसी पर भी इतने नहीं किए गए होंगे ।इतना होने के बावजूद आज वह जीवित है यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है । क्या नारी केवल उपभोग की वस्तु और पेट -प्रजनन तक ही सीमित है ?उसका अपना कोई प्रभुत्व,अस्तित्व नहीं है । यह प्रश्न सदियों सदियों से उठते आए हैं। नारी सुधार के अनेकों सुझाव मिले ,प्रयास हुए ,कानून बने लेकिन आज स्थिति बद से बदतर हो रही है । इसके लिए जिम्मेदार हमारा समाज ,परिवार वो मां बाप जिन्होंने अपनी संतानों को अच्छे संस्कार नहीं दिए । इस भटकन पर नकेल बहुत जरूरी है । संस्कार प्रथमतय पारिवारिक फिर शैक्षिक आधार पर जरूरी माने गए हैं । समाज को सुधारने से पहले घर ,परिवार को सुधारने की जरूरत है ,उस राक्षस वृत्ति ,सोच को खत्म करने की
जरूरत है ,जो मां ,बहन ,वेटी के पवित्र रिश्तों पर धूल ओढ़ा चुकी है।
भारतीय संस्कृति की बात करें तो नारी का स्थान सदा से ही गौरवपूर्ण रहा है मानव जाति के सृजन ,विकास, पोषण और संरक्षण का दायित्व भी नारी के हिस्से में ही रहा है ।ईश्वर ने नारी और पुरुष की रचना साथ ही की है फिर भी पुरुष और नारी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक व धार्मिक स्थिति में नारी के बदले पुरुष का स्थान उच्च क्यों माना जाता है। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जो इस ब्रह्मांड को संचालित करने वाले विधाता है उसकी प्रतिनिधि नारी ही है अर्थात संपूर्ण सृष्टि ही नारी है। अतः भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है ,पूरी सृष्टि की स्त्री है क्योंकि इस सृष्टि में बुद्धि निंद्रा ,सुधा ,छाया ,शक्ति ,तृष्णा जाति, लज्जा ,शांति ,श्रद्धा ,चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है । सहनशीलता का भाव उसमें अद्भुत है। पुरुषों से ज्यादा गुण ,विशेषताएं नारी में पाई जाती है । स्नेहशील पूर्ण हृदया उसकी बुद्धि में भी प्रभावी रहता है तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक अनेकों कष्ट सहकर भी उसे आनंद की अनुभूति होती है । नारी भाव-प्रधान है। पिता ,पति ,पुत्र व परिजनों के प्रति स्नेहयुक्त शुभभाव रखती है। क्या आज की नारी घर, परिवार ,समाज की जरूरत बन गई है । पारिवारिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना उसकी सीमा बन गई है । आज की नारी तो घर परिवार के साथ साथ आर्थिक स्तर पर भी मजबूत होती जा रही है। वह आत्मनिर्भर है , कर्तव्य निभाती है क्या अपने हकों की अधिकारिणी नहीं है । फिर क्यों वह सक्षम होते हुए भी अबला मान ली जाती है, उसका शोषण ,तिरस्कार होता है । देवी रूप है तो हर दृष्टि देविय दृष्टि क्यों नहीं? क्यों धार्मिक अनुष्ठानों में दिखावा /दिखावे का सहारा लिया जाता है । नारी शक्ति ,देवी शक्ति महिमा का गुणगान किया जाता है नवरात्रों में कन्या पूजन किया जाता है, क्यों? क्या यह मनुष्य की मजबूरी है? दिखावे का आवरण ओढ़ कर जिस नारी शक्ति की पूजा की जाती है पर्दे के पीछे उसकी दशा इतनी दयनीय क्यों है? आज जरूरत है उस कुंठित मानसिकता को सुधारने की । मन में व्याप्त अंधकार को दूर करके प्रकाशमान करने की ।
नारी के प्रति हर व्यक्ति के हृदय में पवित्र ,सच्ची भावना का होना अति आवश्यक है। नारी सुरक्षित ,समाज सुरक्षित तभी राष्ट्र सुरक्षित और उन्नत हो पायेगा ।
शीला सिंह
बिलासपुर हिमाचल प्रदेश
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