” नाराज़गी ” ग़ज़ल
अपनी नाराज़गी का, छोड़ कुछ असर जाऊँ,
गर बुलाए वो, तभी भी न उसके घर जाऊँ।
मुड़ के देखूँ न उसे, राह मेँ, चलते-चलते,
भले, नज़र कहे, इक पल को तो, ठहर जाऊँ।
मुस्कुरा के ही, हमेशा मिलूँ, सितमगर से,
रुबरू उसके, मैं, हरगिज़ न दीदे-तर जाऊँ।
ज़हन में अब भी है, साया, घनेरी ज़ुल्फ़ोँ का,
कू-ए-याराँ से, पर ठिठके बिना गुज़र जाऊँ।
इक अहद से भले, बेज़ारे-तग़ाफ़ुल हूँ मैँ,
दिल में रख, ज़ौक़-ए-लमहात, कर बसर जाऊँ।
ज़र-ओ-दौलत भी पराई, मकाँ किराए का,
रसूख़े-इश्क़ ही अपना, बलन्द कर जाऊँ।
है तहेदिल से, मरहबा तिरा, भले “आशा”,
याद इतना भी न कर मुझको, कि मैं मर जाऊँ..!
दीदे-तर# आंखों में आंसू (लेकर), (with) tear laden eyes
कू-ए-याराँ # प्रेयसी की गली, street of the beloved
अहद # एक लम्बा अन्तराल, a long interval
बेज़ारे-तग़ाफ़ुल # नज़रन्दाज़ करने के रवैये से त्रस्त, annoyed due to neglectful attitude
ज़ौक़-ए-लमहात # आनंद के क्षण, moments of joy
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