ऑर्केस्ट्रा वाली
वो नाचती है
तुम्हारे मनोरंजन के लिए
पर उसे अपनी जागीर
न समझ लेना।
बेशर्म,हवस भरी नज़रों से
उसकी असमत मत नोचना।
वो भी बहन है, बेटी है
तुम्हारी नहीं तो किसी और की।
चंद रद्दी भूरे-हरे,नीले-पीले
कागजों के गुमान में
मूँछों पे ताव दे मर्दानगी की शान में
छू न देना उसका बदन, और
खो न देना अपने पुरखों का मान-सम्मान।
हाँ वो नाचती जरूर है
मर्ज़ी या मज़बूरी
जैसे भी!
पर बिकने वाली नहीं
तुम्हारे कड़क चमकदार नोटों और
रद्दी, घटिया चरित्र के एवज में।
ज़ुबाँ है उसके पास
और बोलने की हिम्मत भी।
कह देगी, “खरीद लिए हैं का”
डबडबायी पर रौद्र आँखे लिये।
फिर क्या कहोगे?
-अटल©