नाकामियों को छुपाने के लिये किया जाने लगा है मुआवजा का इस्तेमाल
भारत को एक कृषि प्रधान देश कहा जाता है लेकिन साहिब, जरा गौर कीजिये, वक्त बदल रहा है आजादी से लेकर भले ही आज तक भारत के कृषि प्रधान होने का ढ़िढोरा पीटते हुये बड़े-बड़े मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें की गयी हो, लेकिन इसे बिडम्बना ही कहा जाये कि कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भी कृषि की हालत बिगड़ती जा रही है किसानों को अन्नदाता ,पालनहार जैसे शब्दों से सम्बोधित कर सिर्फ वोट बैंक की राजनीति तक सीमित कर दिया गया और किसानों एवं कृषि के नाम पर वोट बैंक की राजनीति यूं ही चलते रहे इसके लिये मुआवजा नामक खिलौना पकड़ा दिया गया। क्या वास्तव में सारी समस्याओं का हल सिर्फ मुआवजा है ?
माफ कीजिये, मुझे लगता है कि मुआवजा किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता क्योंकि कुछ दिन किसी को खाना खिलाने से अच्छा है कि उसे आत्मनिर्भर बना दो जिससे कुछ दिन आपके यहां खाने के बाद उसे किसी और के यहां खाने के लिये मोहताज न होना पड़े। इसी प्रकार मुआवजा मात्र कुछ दिनों का सहारा तो बन सकता न कि समस्या का हल।
अगर यह कहा जाये कि “नाकामियों को छुपाने के लिये मुआवजा का इस्तेमाल किया जाने लगा है” तो यह कहना बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा।
कहा जाता है कि ‘‘भारत की आत्मा गॉव में बसती हैं।’’ फिर आखिर ऐसा क्या कारण है कि भारत के आत्मा में बसने वाले किसान र्दुदशा की मार झेल खुद की जीवन लीला समाप्त करने तक को मजबूर है ? जिसका परिणाम भी हमारे सामने आता हुआ प्रतीत होने लगा है जो पूरी तरह निराशाजनक एवं चिन्ताजनक है। कागजों में भले ही किसानों की संख्या बढ़ी या घटी हो, लेकिन धरातल पर पूर्ण ईमानदारी एवं निष्पक्षता से आंकलन करें तो नकारात्मकता का स्वरूप धारण किये परिणाम ये बताते नजर आयेगें कि किसानों की संख्या निरन्तर घट रही है अधिकांश किसान परिवार यह नहीं चाहते कि उनकी संतान उनकी तरह ही कृषि न अपनायें और यह हो भी रहा है अधिकतर परिवार अपनी संतानों को जनपद एवं प्रदेश के बाहर रोजगार करने के लिये पलायन करने की अनुमति तो प्रदान कर रहे है लेकिन उनकी संतान कृषि को न अपनायें इस दिशा में प्रयास जारी रहता है। समय रहते इस दिशा में ठोस कदम उठाने की प्रबल आवश्यकता है जिससे कृषि प्रधान भारत देश को कृषि के लिये ही मोहताज न होना पड़े।
वोट बैंक की राजनीति के लिये मुआवजा का लॉलीपाप न पकड़ा कर सरकार को कृषि के क्षेत्र में मौजूद समस्याओं के प्रति गम्भीरता से योजनाबद्ध तरीके से कार्य कर समस्याओं के निस्तारण कराने की जरूरत है साथ ही किसानों को मुआवजा का लत लगाने के वजह उन्हें आत्मनिर्भर बनाना भी सरकार, समाजिक संगठनों एवं संस्थाओं का नैतिक कर्तव्य है जिससे किसानों को मजबूरियों के शिकंजे में आकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने को विवश न होना पड़ा और उसके परिवार के परिजनों को समाज में मौजूद अक्ल से नाबालिक लोगों के द्वारा कायर जैसे शब्दों को न सुनना पड़े क्योंकि कहा जाता है कि आत्महत्या करने वाला कायर होता है। सिर्फ आत्महत्या करने वाले इंसान को कायर होने का तगमा दे दिया जाये आखिर ऐसा क्यूॅ ?
जिन परिस्थितियों में उसने मौत को स्वीकार किया क्या वो परिस्थिति कायर नहीं ? समाज इंसानियत के नाम पर बड़ी-बड़ी तो करता है लेकिन आखिर ऐसा क्या कारण होता है कि उसी समाज द्वारा मानसिक रूप से आहत कर उसे आत्महत्या के लिये बाध्य कर दिया जाता है ?
मैं तो आज सिर्फ इतना ही कहना चाहॅूगा कि साहब! वक्त बदल रहा है अपनी चाल भी बदलो अपनी नीति भी बदलो जिससे देश का अन्नदाता किसान सम्मान और स्वाभिमान की जिंदगी जी सके, न कि बेवश और कर्जदार की। कृषि के क्षेत्र में युवाओं को भी सरकार के साथ-साथ कृषि प्रेमियों, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहित करने का कार्य समय रहते प्रारम्भ कर देना चाहिये जिससे देश का भविष्य कहलाने वाला युवा कृषि से विमुख न होकर कृषि को अपनायें और कृषि प्रधान भारत देश नौकरी प्रधान भारत बनने की कगार पर न पहुॅचे।