नहीं भूलता बंटवारे का वो दर्द …
हाय ! नहीं भूलता बंटवारे का वो दर्द ,
गम से मुरझाए चेहरे हुए आहो ज़र्द।
जब अपना दोस्त ही पल में बैरी बना,
भूल गया सब रिश्ते नाते ऐसा दिया दर्द।
लेकर तलवारे हाथो में काटने निकले थे,
जो भी दिखा बच्चा,बूढ़ा औरत और मर्द ।
दो सियासतदारों के आपस की लड़ाई में,
भुगतना पड़ा आवाम को जो गहरा दर्द ।
उसका भुगतान तो किसी ने नहीं किया ,
जिनकी खुशियों पर बिछ गई गर्द ही गर्द ।
हिंदू मुस्लिम जो कल सगे भाइयों जैसे थे,
मुहोबत के जज़्बात की वो गर्मी गई सर्द ।
ये मजहब की दीवार कहां से आ खड़ी हुई,
भूल गए एकाएक इंसानियत के सभी फर्ज ।
लड़े तो मर्द इसमें औरतों का क्या कसूर था ,
तार तार की अस्मत अबलाओ की बेगर्ज ।
क्या बूढ़े, क्या बच्चे किसी को भी न छोड़ा ,
इंसान से हैवान बन बैठे ,बन गए बेदर्द ।
रेलगाड़ियां ,बसें , ट्रक सभी में लाशें भरी हुई,
लगा था लोगों को ये कैसा खौफनाक मर्ज ।
बरसों से खून पसीने से कमाई सारी जयदात,
छूट गई पीछे जान बचाने को भागे सभी मर्द ।
इस गदर ने ऐसा कोहराम सा मचाया चारो ओर,
परिवार सारा बिखर गया न रहा कोई हमदर्द।
मजहब को लेकर कभी आवाम में नहीं आता बैर,
इन्हें लड़वाते है सदा ये सियासतदार ही खुदगर्ज ।
ना नेहरू को सत्ता का लालच होता जिद में आता,
ना ही जिन्ना के मुंह से निकलता बंटवारे का हर्फ ।
उसपर अंग्रेजों की यह चाल फूट डालो राज करो ,
समझ न सके दोनो कर दिया वतन का बेड़ागर्क।
टुकड़े कर दिए देश के महसूस न हुआ जरा भी दर्द,
लानत है इनको देश के नमक का न चुकाया कर्ज ।
यह बंटवारे की दास्तां कई सदियों दोहराई जाएगी,
माज़ी के आईने से जब कभी हटाई जाएगी बर्क।