नस्लें (प्रतिनिधि कहानी)
“अरे भाई ये किसकी लाश है? हमारे बरामदे में क्यों रख रहे हो? हामिदा रोको इन्हें!” बुड्ढ़े गुलमुहम्मद ने अनजान बनते हुए कहा। हालाँकि कल रात को तार (Telegram) मिलने के बाद, उसे सब कुछ ज्ञात हो गया था। तीन शब्द रातभर हथौड़े की भांति उसके मस्तिष्क पर प्रहार कर, उसे लहूलुहान करते रहे “SALIM IS DEAD …”
‘सलीम मर गया…’ रातभर यही तीन शब्द गूंजते रहे कानों में, मस्तिष्क में और वातावरण में। सलीम का चेहरा रातभर उभरता और मिटता रहा गुलमुहम्मद के ज़ेहन में। आँखें सूजकर पथरा गईं थीं और चेहरा भावशून्य हो गया था। दिमाग़ देर तक पुरानी यादों के मरूस्थल में भटकता रहा….
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“हमीदा, मौसमे-बहार में जब जाड़ों की बर्फ़ पिघलकर दरिया हो जाती है तो घाटी में जगह-जगह गुलों के गलीचे से बिछ जाते हैं और दिल कह उठता है—गर फ़िरदौस बारूए ज़मीं अस्त। हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त। फ़िज़ां में शा’इरों की नज़्में, ग़ज़लें, रुबाइयाँ अंगड़ाई लेने लगती हैं। हाय, क्या दिलकश समां होता है वो!” ठण्ड में ठिठुरते बुड्ढ़े गुलमुहम्मद ने बड़े रुमानी अंदाज़ में कहा और फूंक मारकर मन्द पड़तीआँच को तेज़ करने लगा। कुछ चिंगारियाँ हवा में तैर गईं। आग दुबारा सुलग उठी।
“और तुम मेरे बालों में बादाम, खोबानी और गुलाब के फूल सजाते थे और गुललाला, नरगिश की तारीफ़ों के नग़्में छेड़ा करते थे। फिर हम साजे-दिलरुबा के तारों की मौसिक़ी में खो जाया करते थे, हाय! अब तो कमबख़्त यादें ही रह गईं हैं!” अतीत में डूबी हमीदा वर्तमान के यथार्थ पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए बोली, “अब तो सिलवटें उभर आईं हैं और सारे बाल कैसे सिन की तरह सफ़ेद हो गए हैं।” कहते हुए हमीदा आँच पर अपने ठण्डे हाथ सेकने लगी।
“रजाई ऊपर खींच जल जायेगी।” गुलमुहम्मद ने चारपाई से नीचे लटक रही रजाई को देखकर कहा। आग दोनों चारपाइयों के मध्य मिटटी के फ़र्श पर रखी अंगीठी में सुलग रही थी। जिससे पूरे कमरे में गरमी और मद्धम प्रकाश फैल गया था। इसके अलावा काम रौशनी पर एक चिराग़ जल रहा था। बुड्ढा गुलमुहम्मद भी अपनी चारपाई पर रजाई के अंदर दुबक गया और करवट लेकर बोला, “बेगम क्यों तुमने माज़ी का हंसी ख़्वाब तोड़ डाला? क्यों याद दिला रही हो, इस बिगड़े हुए सूरते-हाल की? आज भी रातों को उठकर सहम जाता हूँ—जब अमेरिकी धमाकों की गूंज सुनाई देती है।” कहते हुए गुलमुहम्मद के बदन पर झुरझुरी-सी दौड़ गई। रजाई के भीतर भी उसे कंपकंपी महसूस होने लगी। उसी कम्पन्न को महसूस करते हुए वह सहमे स्वर में बोला, “ऐसी ही गूंज अस्सी के ज़माने में शुराबी (रशियन) फ़ौजों के गोला-बारूद की भी सुनाई देती थी।”
“जंग तो कबकी ख़त्म हो गई नज़र के अब्बा!” कहने के साथ ही हमीदा बानू रो पड़ी। उसे अपने जवान बेटे की याद हो आई। जो हाल ही में, तालिबानों की तरफ़ से लड़ते हुए अमेरिकी गोलाबारी में मारा गया था।
“हाय! कितना प्यारा बच्चा था नज़र मुहम्मद। कहता था, अब्बू अपने कन्धों पर बिठाकर तुम्हें मक्का-मदीना ले जाऊंगा। हज कराऊंगा अब्बू!…” और गुलमुहम्मद भी बिलख उठा।
“बुरा हो इन तालिबानी, पाकिस्तानी और अमेरिकियों का। एक माँ की बददुआ है —कभी भला न होगा इन मरदूदों का। इनके साथ ही दफ़्न हो जायेंगे, इनके बीज। बेऔलाद हो जाएँ ये सब, ताकि सरज़मीने अफ़ग़ान में फिर कोई जवान बच्चा न खोये।” हामिदा के स्वर में आक्रोश था। जिससे अग्नि की मंद लौ में उसका झुर्रीदार चेहरा और भी डरावना हो उठा था।
“ख़ुदा के वास्ते चुप हो जा हमीदा। चिराग़ बुझाकर सो जा। क्यों अपनी सेहत ख़राब कर रही है?” गुलमुहम्मद ने समीप ही जल रही चिराग़ की बीमार रौशनी को फूंक मारकर बुझा दिया। कक्ष में लगभग अँधेरा हो चला था, मगर हमीदा की सिसकियाँ साफ़ सुनाई दे रही थी।
“क्या तुम्हें नींद आएगी नज़र के अब्बू?”
“कौन सो सकता है? सारा बुढ़ापा ही ख़राब हो गया। कमबख़्त, लादेन भी अब तक पकड़ा नहीं गया है! कोई कहता है, तोरा-बोरा की पहाड़ियों में छिपा बैठा है! तो कोई कहता है, पाकिस्तान भाग गया है! और चार रोज़ पहले नूरा बता रहा था कि वह मारा जा चुका है।”
“ख़ुदा करे ऐसा ही हो! सीधे-साधे पठानों को जेहाद का पाठ पढ़ाकर वक़्त से पहले ही मौत के हवाले कर दिया मरदूद ने।” हमीदा के स्वर में ऐसी कड़वाहट घुल गई जैसे लादेन सामने आ खड़ा हुआ हो।
“कल सलीम आ रहा है, कश्मीर जाने से पहले वह हमसे मिलना चाहता है।” गुलमुहम्मद ने बात का रुख़ बदलते हुए कहा।
“इस लड़के का भी दिमाग़ ख़राब हुआ है! क्यों मौत के मुंह में जा रहा है?” हमीदा ने सलीम के प्रति गुस्सा व्यक्त किया।
“अगर ख़ान मेरी बात मानकर, अपनी बेटी नाज़नीन का हाथ, सलीम के हाथ में दे देता! तो मैं इस लड़के को कभी जेहाद के रास्ते पर न चलने देता।” तकिये पर गर्दन को ताव देते हुए गुलमुहम्मद बोला।
“कितना प्यार था दोनों में। बचपन से ही मेरा सलीम बेइतिहाँ चाहता था नाज़नीन को,” कहते हुए हामिद को दोनों का बचपन याद आ गया, “लेकिन हाय री क़िस्मत! बहुत रोया था सलीम, जिस रोज़ नाज़नीन का निकाह कहीं और हो गया।” कहते-कहते हमीदा ने एक ठण्डी आह भरी।
“यहाँ के जेहादियों के सरगना करीमुल्लाह का हुक्म है कि कश्मीर में हिन्दुस्तानी फौजें वहां के मुसलमानों पर ज़ुल्मों-सितम ढा रही हैं। इसलिए हफ्तेभर में पचास जेहादियों का जत्था, पाकिस्तान के रास्ते ख़ुफ़िया तरीक़े से कश्मीर पहुंचेगा। उसमे अपने सलीम का नाम भी है!” कहकर गुलमुहम्मद ने तकिया सीधा किया।
“आपको कैसे ख़बर हुई?” हमीदा चौंक पड़ी।
“कल नूरा ने सलीम का पैग़ाम दिया था।”
“और ये बात तुमने अब तक छिपाई, आज बता रहे हो सोते समय!”
“भूल गया था भई, बुढ़ापे का असर जो ठहरा।”
“तो अब क्यों कर याद आया?”
“दरअस्ल मैं सोच रहा था कि बामियान से बशीर भाईजान के दो-तीन बुलावे आ चुके हैं। कश्मीर जाने से पहले, क्यों न सलीम हमें वहां छोड़ आये?” गुलमुहम्मद ने बात का खुलासा किया।
“बामियान में क्या धरा है अब? बुद्ध के पाक बुत को तो तालिबानों ने कबका तोड़ दिया है। पहले सैलानियों के आने से उन लोगों की कुछ कमाई होती थी, अब तो वो भी चौपट हो गई होगी?”
“हाय! कितना अज़ीम, पाक़ बुत थे दोनों! कई मर्तबा देखकर भी दिल नहीं भरता था उससे। बामियान के पहाड़ों की रौनक थे। सैलानियों का ताँता लगा रहता था, पूरे सालभर वहां। सारी दुनिया-जहान के लोग आते थे।” कहते-कहते बुड्ढ़े गुलमुहम्मद की आँखों के आगे भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाओं को देखने आये देशी-विदेशी पर्यटक घूम उठे। फिर यकायक तोप की आवाज़ें। विशाल बुतों की ओर बढ़ते तालिबानी सिपाही। धवस्त होते उस विशालकाय मूर्ति अवशेष। सब नज़ारे एक-के-बाद-एक गुलमुहम्मद के स्मृति-पटल पर चित्रपट की भांति घूमने लगे। वह चीख उठा, “कमबख़्त तालिबानियों को बर्दाश्त नहीं हुआ! मजहबी जुनून में, तबाह और बर्बाद कर दिया सब कुछ। अब कभी न बन सकेगी वैसी अज़ीम-पाक बुत थे! वो दुनिया का आठवां अजूबा थे। न-जाने तालिबानों को क्या नफ़रत थी मुहब्बत का पैग़ाम देती पाक़-निशानी से। उनकी इस करतूत सेअफ़ग़ानी हिन्दू भाइयों के आगे पठानों का सर शर्म से नीचा हो गया!” बेहद अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए बुड्ढ़े गुलमुहम्मद ने कहा।
“अब चारों तरफ़ सिवाए बर्बादी और खंडहरों के अफ़ग़ानिस्तान में बचा ही क्या है?” हमीदा ने गुल के सुर-से-सुर मिलाया, “सब कुछ ख़त्म हो गया नज़र के अब्बा।”
“हम उस बुत की हिफ़ाज़त न कर सके। इसलिए ये खुदा का क़हर नाज़िल: हुआ है हम पर।” बुड्ढ़े गुलमुहम्मद ने आक्रोश व्यक्त किया।
“मैं नहीं जाऊंगी बामियान। टूटा -फुटा, तबाह-हाल, आख़िर जैसा भी है मिटटी का ये घर, कम-से-कम अपना तो है। यहाँ मेरे बच्चे की यादें जुड़ीं हैं, एक दिन यहीं सोना है मुझे, अपने नज़र की क़ब्र के पास।”
“खुदा के वास्ते, मत रो हमीदा।”
रातभर यूँ ही रह-रहकर पुरानी यादें हरी होती रहीं। इन्हीं रोज़मर्रा की बातों के सहारे जीवन के बचे-खुचे शेष दिन काट रहे थे, दोनों बुड्ढ़े। घड़ीभर को उन्हें कभी नींद आ जाये, तो आ जाये, वरना एक ज़माना गुज़र चुका था, उन्हें चैन से सोये। अलबत्ता, जो आग पहले सुलग रही थी। धीरे-धीरे अब वह शान्त हो चली थी।
***
“अमेरिका और पाकिस्तान, दुनिया से अगर ये दोनों मुल्क मिट जाएँ, तो दहशतगर्दी का नामोनिशां तक बाक़ी न बचे।” कहने के साथ ही सलीम ने आकाश में फ़ायर किया और एक परिन्दा ज़मीन पर गिरकर क्षणभर को तड़पा फिर शांत हो गया। रिवॉल्वर के मुहाने से धुआँ निकल रहा था। जिसे फूंकने के बाद सलीम ने रिवॉल्वर को चूमा और चमड़े की जाकिट की जेब में छिपा लिया।
“क्यों आते ही बेज़ुबान परिन्दों पर अपना ग़ुस्सा निकाल रहे हो सलीम? हम सुबह से ही तुम्हारा इन्तिज़ार कर रहे थे। अब आये हो?” बुड्ढ़े गुलमुहम्मद ने हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहा। दोनों घर के प्रांगण में चारपाइयों पर बैठे थे।
“कुछ नहीं, ऐसे ही करीमुल्लाह के साथ मीटिंग में फंस गया था।” सलीम ने मैगज़ीन के पन्ने उलटते हुए कहा।
“छोड़ दे बेटा हथियार। ये मौत का कारोबार? करीमुल्लाह तो पाकिस्तानी है, वह अपनी नस्लों को तो कब का तबाह कर चुके हैं। अब हमारी नस्लों को तबाह करना चाहते हैं। वैसे भी गोला-बारूद किसी मसले को हल नहीं करते, बल्कि हालात को और पेचीदा बना देते हैं!”
“ताई, अभी तक चाय लेकर नहीं आई!” सलीम ने जैसे गुलमुहम्मद की बात को अनसुना करते हुए भीतर दरवाज़े पर निगाह गढ़ाते हुए कहा।
“तुमसे तो बातें करना भी फ़िज़ूल है।” हुक्का गुड़गुड़ाते हुए बुड्ढा गुलमुहम्मद बड़बड़ाया।
“जानता हूँ ताया (बड़े अब्बू), आप क्या कहना चाहते हैं? मगर ये बात इन कुत्तों से जाकर कहो, जो सैकड़ों लोगों के मौत के परवाने पर दस्तख़त करते हैं! हुक्म चलाते हैं और मैगज़ीनों के ऊपर जिनकी तस्वीरें छपती हैं … अम्न का फ़रिश्ता कहा जाता है, इन कमीनों को!” कहते हुए सलीम ने पत्रिका का मुख्य पृष्ठ गुलमुहम्मद को दिखाया। जिस पर तत्कालीन अमेरिकी और पाकिस्तानी हुक्मरानों के फोटो छपे हुए थे। उनके ठीक नीचे विश्वविख्यात आतंकवादी ओसामा-बिन-लादेन का मुस्कुराता हुआ फोटो भी छपा था। “अगर ये तीनों मेरे हाथ आ जाएँ, तो इनके सैकड़ों टुकड़े काटकर इनकी बोटियाँ कुत्ते-बिल्लियों को खिला दूँ।” और आवेश में सलीम मैगज़ीन को फाड़ता चला गया। उसके हाथ तब रुके जब फटे हुए काग़ज़ के टुकड़े हवा में लहरा उठे। सारा बरामदा काग़ज़ के कचरे से भर उठा।
“ओफ्फो, ये क्या हो रहा है? अभी सारा बरामदा साफ़ किया था, फिर कूड़ा कर दिया।” भीतर से पीतल के बड़े गिलासों में चाय लिए हुए, बाहर आई हमीदा ने काग़ज़ के बिखरे टुकड़ों को देखते हुए कहा।
“ला ताई, जल्दी पिला चाय, ठण्ड लग रही है।” कहते हुए सलीम ने आप ही दो गिलास उठा लिए। एक ताया के हाथ में थमाते हुए वह बोला, “इससे पहले ताई का ग़ुस्सा ठण्डा हो, हम गरमागरम चाय पी लेते हैं ताया।”
“सलीम भूल गया, कैसे चिमटे से पिटा करता था बचपन में, जब नज़र के साथ, तू शरारत करता था।” कहते हुए हमीदा भावुक-सी हो उठी। उसे नज़र मुहम्मद की याद हो आई।
“माँ के हाथों की मार और दुलार कौन भूल सकता है ताई। अम्मी के गुज़र जाने के बाद तूने ही तो मुझे पाला है।” सलीम ने मौक़े की नज़ाकत को भांपते हुए कहा।
“तभी तू मेरी हर बात मानता है। इसलिए तू कश्मीर जा रहा है।” हामिद ने माँ की तरह पुत्र को डाँटा।
“हमीदा, तू ही समझा इस नालायक को, मेरी तो कुछ सुनता ही नहीं है।” चाय के घूंट पीकर गुलमुहम्मद बोला, “तू अपनी ममता का वास्ता देकर रोक ले इसे।”
“ताया आप भी बस, कमाल हैं!” कहकर सलीम भी चाय पीने लगा।
“बेटे, तू तो जानता ही है, नज़र के चले जाने के बाद, हम कितने तनहा, कितने खोखले हो गए हैं। रात करवटों और पुरानी यादों के सहारे कटती है! अब कोई नहीं, जो हम बुड्ढों की आँखों से बहते हुए आंसू रोके! बेटे, सलीम अपने ताई-ताया पर रहम खा। मैं अपना दूसरा बीटा कुर्बान नहीं कर सकती!” हमीदा लगभग रो पड़ी।
“ताई मैं चाहूँ भी, तो रुक नहीं सकता।” कहते हुए सलीम ने हमीदा के आंसू पोछे, “अगर कश्मीर जाने से मना करता हूँ, तो वो पाकिस्तानी (करीमुल्लाह) मुझे मरवा डालेगा! इन कट्टरपंथियों के बहकावे में आकर जेहादी बनना तो आसान है, मगर जेहादी का ठप्पा लगने के बाद हमें आज़ादी तभी मिलती है, जब मौत आकर हमारी सांसों का सिलसिला तोड़ दे।” सलीम के स्वर में विवशतापूर्ण आक्रोश था, “मुझे तो ये भी नहीं मालूम, जिस गोली पर मेरा नाम लिखा है किसी दोस्त की होगी या दुश्मन की?”
“या खुदा, अपने बन्दों को नेक राह दे। बेटा, तू छोड़ दे ये सब, उस पाकिस्तानी को मैं समझा दूंगा। क्या हमारे आंसू देखकर भी उस करिमुल्लाह का दिल नहीं पिघलेगा?” गुलमुहम्मद के स्वर में याचना और आँखों में नमी थी।
सालों
“ताया, पत्थर अगर पिघलने लगे, तो फिर उसे पत्थर कौन कहे? माँ-बहनों की चीखों से बर्फ़ के पहाड़ों में तो दरारें पड़ सकती हैं मगर उस संगदिल के कानों में नहीं। इंसानियत के नाम पर तमाचा है करीमुल्लाह। हैवान से भी बदतर है। जानते हो ताया, अपने सगे भाइयों और बेटों के साथ क्या किया उसने? मुज़फ़्फ़राबाद में सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया उन्हें!” कहते हुए सलीम के होंठ सख़्ती से भिंच गए और लहू उतर आया उसकी आँखों में। करीमुल्लाह का चेहरा याद आते ही उसने हिक़ारत से एक ओर थूक दिया।
“या अल्लाह! इतने संगदिल इंसान भी होते हैं दुनिया में।” हमीदा हैरान थी।
“ताई, उनका कसूर इतना था कि उन्होंने जेहाद में शामिल होने से इन्कार कर दिया था,” सलीम के स्वर में वही बेरुख़ी थी, “उसके लिए रिश्ते-नाते, जज़्बात कोई मायने नहीं रखते! बस, जेहाद का भूत सवार है उसके सर पर, ताई दूसरा औरंगज़ेब है वो!”
“खुदा मारने वालों की रूह को सुकून दे।” गुलमुहम्मद ने मृतकों के लिए दुआ की, “लेकिन बेटे, जिसे तुम जेहाद कह रहे हो, एक फ़रेब है, पाकिस्तान इसके ज़रिये कश्मीर को हड़पने के मंसूबे पाल रहा है। इससे अफ़ग़ानियों को क्या फ़ायदा?” गुलमुहम्मद ने चाय का ख़ाली गिलास नीचे रखते हुए कहा।
“ये बात तो मैं भी जानता हूँ ताया, कश्मीर में जेहाद बेमानी है।” सलीम ने गुलमुहम्मद से सहमती जताई।
“क्या तुम जानते हो, हिंदुस्तान का मुसलमान कितने बेहतर हालात में जी रहा है? ये बात जाकर गुलाम मुहम्मद खान से पूछो, जो पिछले हफ़्ते ही हिंदुस्तान से लौटा है, पूरे बारह साल बाद!”
“क्या ख़ान अंकल लौट आये?”
“हाँ, उन्होंने ही मुझे बताया—हिंदुस्तानी मुसलमान दुनिया का सबसे खुशकिस्मत मुसलमान है, और सन सैंतालीस (1947) के बटवारे के बाद जो पाकिस्तान में रह गए या मुहाजिर बनकर पाकिस्तान गए, उनके भाग ही फूट गए! आज तक अपनाये नहीं गए वो लोग, जो पिछले पचास सैलून से वहां रह रहे हैं। फिर तुम्हीं सोचो, क्या मुश्तक़बिल होगा, कश्मीरियों का पाकिस्तान में? मैं मानता हूँ कि सभी पाकिस्तानी ख़राब नहीं हैं। वहाँ भी उदारवादी, तरक़्क़ीपसंद और प्रगतिशील लोग बहुतायत में मिल जायेंगे। मगर वहां के चन्द मुट्ठीभर कठमुल्लाओं और रहनुमाओं ने जो माहौल तैयार किया है, बड़ा ही ख़ौफ़नाक है। आये दिन वहां, शिया-सुन्नियों के मध्य खूनी मुठभेड़ें होती रहती हैं। बच्चा-बच्चा क़र्ज़ के बोझ में डूबा है। तालीम के नाम पर तमाचा मारा है पाकिस्तानी हुक्मरानों ने और अपनी सियासी रोटियाँ सेकी हैं। अपनी फ़िज़ां में घोला हुआ ज़हर और मुल्कों में भी फैला रहे हैं आई०एस०आई० के पिट्ठू। अपनी नस्लों को, वो आज आसानी से तालिबानी तो बना सकते हैं मगर मुल्क की तरक़्क़ी के वास्ते, कल को डॉक्टर-इंजीनियर या साइंसदाँ पैदा नहीं कर सकते? मजहब की आड़ में पैदा हुए पाकिस्तान ने, मजहब को सिवाय बदनामी के आज तक दिया क्या है? हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों एक साथ आज़ाद हुए थे, और देख लो, आज हिंदुस्तान चाँद-सितारों तक जा पहुंचा है और पाकिस्तान अपने दकियानुसी सोच के चलते ज्यों-का-त्यों है। बड़े दुःख की बात है, आज भी पाकिस्तान में वही हुक्मराँ कामयाब है, जो हिंदुस्तान के ख़िलाफ़ अधिक-से-अधिक ज़हर उगल सकता हो। बेटे, पाकिस्तान सिर्फ़ हिंदुस्तान का ही ख़तावार नहीं, उसने अफ़ग़ानों को भी छला है।” कहते-कहते गुलमुहम्मद का चेहरा पाकिस्तान के प्रति घृणा से भर उठा, “बेटा, हिंदुस्तान में ये सब नहीं होता। वहां के मुसलमानों को वो सभी हक़-ओ-हक़ूक़ मिले हुए हैं, जो कि वहां हिंदुओं को हैं। वहां अम्न-चैन है। कश्मीर पर ज़ुल्मों-सितम पाकिस्तान ने ढाया है, हिंदुस्तान ने नहीं। अफ़ग़ान पर भी पाकिस्तान ने ही दहशतगर्द तालिबानों को तख़्तनशीं किया था, और आज अमेरिका से दोस्ती के चलते दोनों (अमेरिका और पाकिस्तान) दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ एकजुट हैं! अफ़ग़ानों पर बमबारी कर रहे हैं! क्या दिखावा है? क्या छलावा है? तुम्हारे भाई नज़र मुहम्मद के कातिल हैं ये सब!”
“ताया, मैं सब समझता हूँ, पर क्या करूँ, मज़बूर हूँ!” सलीम के स्वर में फिर वही बेवसी थी, “जेहाद छोड़कर मैं करूँगा भी क्या? वो कुत्ते मुझे पाताल से भी ढूंढ कर मार डालेंगे! अगर उनके हाथों से बच भी गया, तो भूख और बेरोज़गारी मुझे मार डालेगी! आठ बरस का था जब शुराबियों (रशियनों) के गोल-बारूद ने मेरे वालिद की जान लेकर मुझे बेसहारा कर दिया था। तालीम की जगह जेहादियों ने तलवार थमा दी थी। आज जिन हाथों में कंप्यूटर होना चाहिए था, कारतूस हैं! अमेरिका और लादेन की मदद से हमने शुराबियों (रशियनों) के टुकड़े तो कर दिए थे, मगर तब से जो हथियार हाथ में आया, अब कुछ और करने का दिल नहीं करता।”
“या अल्लाह! तू नेकी की राह तो अपना, कोई-न-कोई रास्ता ख़ुद-ब-ख़ुद निकल आएगा।” गुलमुहम्मद ने सलीम को प्यार से समझाया। “जब पाकिस्तान ने अफ़ग़ान के ख़िलाफ़ जंग में अमेरिका की मदद की थी, उस वक्त, मुझे ये रास्ता छोड़ने का ख़्याल आया था, मगर छोड़ नहीं सका! क्योंकि आज भूख ने सारे अफ़ग़ान को झिंझोड़कर रख दिया है। जानवरों का चारा खाकर यहाँ के बाशिन्दे अपनी भूख मिटा रहे हैं। ऐसे में जेहाद की नौकरी से जो चार पैसे हाथ आते हैं, तो बुरा क्या है?” सलीम ने अपनी सफ़ाई पेश की।
“या मेरे मालिक! तू ही इस लड़के को कोई रास्ता दिखला!” गुलमुहम्मद ने बेचैन होकर आकाश की तरफ़ देखा।
“आज के ज़माने में मालिक वही है तायाजान, जिसके पास माल है!” सलीम ने चुटकी बजाई, “और माल उसी कमबख़्त करीमुल्लाह के पास है।”
“तू करीमुल्लाह को गोली मार दे ….! इतना तो कर ही सकता है, मैं समझूँगा तूने मेरे बेटे के हत्यारे को गोली मार दी।” गुलमुहम्मद के स्वर में कठोरता थी।
“सवाल एक करीमुल्लाह के मर जाने का नहीं है ताया! आज इधर एक करीमुल्लाह का जनाज़ा उठेगा, तो कल को उसकी मय्यत पे फ़ातिहा पढ़ने को कोई दूसरा करीमुल्लाह उठ खड़ा होगा! तब कितनों को मारता फिरूँगा मैं?” सलीम ने जैसे चीख़कर अपनी खीज उतारी हो!
“तालिबानों के सफाये के बाद, अब इतना आसान नहीं है, किसी करीमुल्लाह का पनपना। जेहाद के लिए नौजवानों को बहकाना!” गुलमुहम्मद ने अपनी राय व्यक्त की।
“सो तो ठीक है ताया, फिर भी नई सरकार को जमने में कुछ वक़्त तो लगेगा ही! फिर पिछले बीस बरसों में जेहाद के ज़हरीले दरख़्त की जड़ें इतनी गहरी पैठ चुकी हैं कि हमारी पीढ़ी के मिटने तक कुछ न हो सकेगा!”
“क्या तुम्हारा जाना एक-दो महीने के लिए टल नहीं सकता?”
“क्यों?”
“क्या पता, तब तक सूरते-हाल बदल जाएँ?”
“कैसे बदलेगा, सूरते-हाल?”
“जिस तरह पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी फौजों का जमावड़ा बॉर्डर पर काफ़ी बढ़ चुका है, हो सकता है, इस बीच जंग ही छिड़ जाए!” गुलमुहम्मद ने बड़ी दूर-अन्देशी से कहा। जिसे सुनकर सलीम की हंसी छूट पड़ी।
“ताया, क्या बच्चों जैसी बात कर रहे हो?” हंसी रोकते हुए सलीम बोला, “ताया दोनों मुल्कों के अख़बारों में, जंग तो एक अरसे से चल रही है। हर बार लगता है कि जंग अब छिड़ी या तब छिड़ी! मगर पाकिस्तान एक डरपोक मुल्क है। पहले भी तीन-चार दफ़ा हिंदुस्तान से पिट चुका है। इसलिए खुलेआम मौत को ललकारने की हिम्मत उसमे नहीं है। अलबत्ता, चोरी-छिपे जंग करने में उसको मज़ा आता है और वह इसे ज़ारी रखेगा!” सलीम ने पाकिस्तान के दोगलेपन को ज़ाहिर करते हुए कहा, “ताया ख़बरों में रोज़ ही पढ़ते-सुनते हो कि आज इतने दहशतगर्द मारे गए …. आज इतने घुसपैठिये मारे गए…. पर क्या कभी आपने सुना कि पाकिस्तानी सिपाही मारे गए?”
“क्यों मरने लगे वो लोग? जब मारने को तुम जैसे बेवकूफ़ अफ़गानी जो हैं!” गुलमुहम्मद ने तपाक से कहा।
“यही तो…., यही तो मैं कहना चाह रहा था। ताया और आप कह रहे थे कि पाकिस्तान जंग छेड़ेगा…., या खुदा, मेरी तो हंसी नहीं रुक रही है अब तक।” सलीम पुनः ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा। जिससे गुलमुहम्मद खीज उठा।
“तू मार खायेगा सलीम मेरे हाथों से!” कहते हुए गुलमुहम्मद ने सलीम को हल्की-सी चपत लगाईं।
इस बीच मैगज़ीन के फटे हुए काग़ज़ का एक टुकड़ा उड़कर सलीम के पैरों की तरफ़ आ गिरा। जिसे उसने यूँ ही उठा लिया। उस पर हिंदी में लिखा था ‘उग्रवादी ढ़ेर…’ बाक़ी आगे-पीछे का सिरा फटा हुआ था।
“ताया, किसी रोज़ हिंदुस्तानी अख़बारों में, मेरे लिए भी लिखा होगा–कश्मीर में घुसपैठ करते हुए, भाड़े का एक और उग्रवादी मारा गया।”
“एक और चपत लगाऊंगा। अगर ऐसी बात की तो!” गुलमुहम्मद ने सलीम का कण मरोड़ते हुए कहा, “वैसे ये हिंदुस्तानी में क्या लिखा है?”
“उग्रवादी ढ़ेर…” सलीम काग़ज़ ताया की ओर बढ़ाते हुए कहा, “मेरी मानों तो आप भी हिंदुस्तानी सीख लो। बड़ी अच्छी ज़ुबान है।”
“अब बुढ़ापे में ये पश्तो (अफ़गानी भाषा) पठान हिंदुस्तानी किताबें पढ़कर आँखें फोड़ेगा क्या?” गुलमुहम्मद हंस पड़ा।
“ताया, आप भी बस कमाल हैं!” सलीम ने हँसते हुए कहा, “ताई आज खाना भी खिलाएगी या रोजा रखना है?” सलीम ने हमीदा से कहा, जो अब तक मूक दर्शक बनी हुई बातें सुन रही थी।
“खाना तो सुबह से ही तैयार है।” हमीदा ने चाय के ख़ाली गिलासों को समेटते हुए कहा।
“अच्छा सलीम बेटे, जंग के दौरान इस बीच तुम रिफ़्यूजी कैम्प भी गए थे न?”
“हाँ, ताया!”
“क्या तुम्हारी मुलाक़ात नाज़नीन से नहीं हुई? आजकल अपने शौहर के साथ वो बेचारी भी…!”
“नाम मत लो उस तवायफ़ का, नफ़रत करता हूँ मैं उससे!”
“तवायफ़! या मेरे मौला!!” गुलमुहम्मद चौंक पड़ा।
“हाँ-हाँ तवायफ़…, जाकर देखो क्वेटा शहर (पाकिस्तान) में, जहाँ सैकड़ों अफ़गानी औरतें जिस्मफ़रोशी कर रही हैं। वह कमबख़्त भी वहीँ है!” एक अजीब-सी घृणा से सलीम का चेहरा भर उठा।
“वो बेचारी तो अपने शौहर के साथ गई थी!” हमीदा भी हैरान और परेशान थी।
“आख़िर क्या वजह रही होगी?” गुलमुहम्मद की आँखों में शून्य तैर रहा था।
तभी गाँव के समीप बानी पीर बाबा की मस्जिद से ‘अल्लाह हो अकबर… अल्लाह….’ की पाक ध्वनि गूंजी।
“लो नमाज़ का वक़्त हो गया। आज बातों में समय का कुछ पता ही नहीं चला।” गुलमुहम्मद ने अजान की आवाज़ सुनकर कहा।
“चलो ताया, पहले नमाज़ अता कर लें।” सलीम ने कहा और दोनों मुसलमां वहीँ नमाज़ की तैयारी में जुट गए।
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“ताई, कश्मीर में तेरे हाथों की बनी रोटियॉँ बड़ी याद आएँगी!” खा चुकने के बाद हाथ धोते हुए सलीम ने डकार लेते हुए कहा और तौलिये से हाथ साफ़ करने लगा।
“तू यहीं ठहर जा, ज़िंदगीभर रोटियाँ बना के खिलाऊंगी बेटा!” हमीदा का स्वर भारी हो गया।
“ताई, आज पूरे दो दिन हो गए हैं मुझे! अब चलने का वक़्त आ पहुंचा है। पता नहीं दुबारा आप लोगों की शक्लें देख पाऊंगा या नहीं।” कहते-कहते सलीम का स्वर भारी हो चला था। आँखें नम हो उठीं।
“ओये चुपकर! लगाऊंगा एक, ऐसी बातें नहीं करते!” गुलमुहम्मद ने हल्की-सी चपत लगाते हुए कहा।
“ताया, कश्मीर में तेरे हाथों की मार भी बड़ी याद आएगी!”
“ओये कमबख़्त, अब रुला के छोड़ेगा क्या?” कहते हुए गुलमुहम्मद ने सलीम को सीने से लगा लिया। उसे लगा जैसे नज़र मुहम्मद से गले मिल रहा है।
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कश्मीर जाने से पहले ये आख़िरी मुलाक़ात थी सलीम और ताया-ताई के मध्य। अभी दो हफ़्ते पहले की ही तो बात थी ये। इन दो हफ़्तों में सारा परिदृश्य ही बदल गया था। कश्मीर में घुसपैठ करते वक़्त भारतीय जवानों की गोलियों से भाड़े के जो सात उग्रवादी मारे गए थे, अभागा सलीम भी उनमे से एक था। अपनी जान जोखिम में डालकर नूरा, सलीम की लाश को गाँव लाया था।
“जब तक जेहाद रहेगा। सलीम तेरा नाम रहेगा।” वातावरण में उपस्थित जनसमुदाय द्वारा निरन्तर नारे गूंज रहे थे।
“ताया, ये लो सलीम का पर्स।” नूरा ने गुलमुहम्मद की तन्द्रा तोड़ी और वह यादों के मरुस्थल से निकलकर यथार्थ के ठोस धरातल पर आ खड़ा हुआ। दो माह पूर्व नज़र मुहम्मद की लाश भी इसी बरामदे में रखी हुई थी और पृष्ठभूमि पर जेहादियों द्वारा ऐसे ही नारे लगाए जा रहे थे।
आख़िरकार गुलमुहम्मद ने बेइरादा पर्स खोला तो पाया — उसमे नाज़नीन का मुस्कुराता हुआ फोटो रखा था। तभी किसी ने लाश के चेहरे से कफ़न हटाया तो गुलमुहम्मद की अंतर आत्मा चीत्कार कर उठी, “हमारी नस्लों को जेहाद का घुन खा गया हमीदा….!!!”