“नश्वर जगत”
“नश्वर जगत”
देह वस्त्र है, सांसारिकता सर्वत्र दृष्टिगत है
विलीन हो जाना है इसे यही सत्य है…
तथापि मिथ्या, प्रपंच, आडम्बर सर्वत्र है
काया का दर्प, माया का अभिमान
मनुष्य इसका अभ्यस्त है…
प्रारब्ध प्रबल है, सत्य अटल है
जीवन की नश्वरता साक्षात गरल है…
परपीड़न जाज्वलय अन्तर्मन सम्पूर्ण जगत संतप्त है
शान्ति, संतुष्टि, शुद्धि ही है मुक्तिमनुज तुम्हारा गंतव्य सुदूरस्थ है…
आत्म चिंतन, दिव्य ज्ञान सत्य का भान यही पुण्य पथ प्रशस्त है
यह नश्वर शरीर वह अवयव कहते जिसको पंचतत्व है…
निर्धारित है वयआना सभी का अस्त है
व्यर्थ की तृष्णा, भ्रम है कि अमरत्व है…
सुनील पुष्करणा