नव वर्ष की सच्चाई……
अब तक तेरा मौसम नहीं बदला, शीत की बरसात ठहरी,
नव उमंग में तेरा अक्स कहीं, वे पुरानी यादों में बसी रही।
पिछली पहर की अंधेरी रात, अभी अपने घेरों में बसी रही,
पर अच्छे दिनों की जल्दी में दुनिया बस नववर्ष कहती रही।
हरियाली का एहसास खो गया, महकते फूल अब मुरझाए
न हरे-भरे वृक्ष पीले हुए, न पेड़ो पर कोमल कोंपलें छाए।
प्रकृति के कालचक्र पर, मंडराता ये बुद्धिमानों का साया,
देखो, स्वागत के ढोंग में जनवरी का अवैध मेहमान आया।
एक-दूसरे के लिए दिल में छिपा है विष का गहरा घोल,
ये घरों में सफाई नहीं, सबकुछ है बेतरतीब और झोल।
पर नव संस्कृति के नाम पर, तुम्हारी कोई कीमत नहीं,
सिर्फ मिलकर पिकनिक मनाने को कहते, नववर्ष यहीं!
दूरों से अतिथि आए थे, पर उनकी गलतियां क्यों छुपाना,
तुम तो पुराने दास हो, बातों को सहते हुए फर्ज निभाना।
कहते है, वक्ता की बातें खत्म हों, अब क्या विवाद करना,
तुम उनके भोजन के लिए, जीवित पिता का श्राद्ध करना।
समय के साथ जा रही बातें, पर ये क्या है, एक बहाना?
एक दिन छुट्टी मनाते हो, गांव के खेत-बागों में आ जाना।
पुराने दोस्तों संग गले मिलकर, खुशियों का मेला सजाना,
पर यह असली नव वर्ष नहीं है, इस सच को भूल न जाना।
या 1 जनवरी को नववर्ष कहते हुए खुद को बदल जाओगे,
भीष्म गर्मियों में सूट, टाई-बेल्ट और जूते पहन के आओगे।
प्रेम की भाषा छोड़के, दिखावे की म्यूजिक में खो जाओगे,
तुम्हारा नाम तक मिट चुका, पर घमंड में चूर हो जाओगे।