नवसृजन
आज मैं अपनी कविता नवसृजन आपके सामने रख रही हूं जो आशीष भी है और किसी का अभिनंदन भी। नारी की प्रवृत्ति होती है अपने आप को और सर्वस्व को अपने दायित्व के ऊपर निछावर करती है ।अपनी इच्छाओं और हुनर का बलिदान कर एक समय आता है जब वह अपना नवसृजन करती है अपने आप को पहचानती है और निखारती है।
“नवसृजन”
शंख नाद हो चुका
नव सृजन की दिशा
संचय के मोती से बना
प्रयत्न पुष्प से गुथा
स्वयं पुष्पहार ले सजा
तुझमें सहस्र गुण छुपा
तू आशंका हर दे भुला
था मन बदलो में घिरा
ज्योत नवपुंज जला
प्रकाश कर हर दिशा
प्रीति स्रोत से बना
नित स्वर नया
कर्म पर जरा
दृष्टि अपनी टिका
शीश पर तेरे सदा
ईश की रहे कृपा
धीर से दीप जला
अपने विश्वास का
धर वेश श्याम मेघ का
घनघोर तू बरस जरा
तृप्त कर अपनी धरा