” नवल नवल से पात हैं ” !!
गीत
हाड़ काँपते , सर्दी ऐसी ,
शरद ऋतु की रात है !!
ठिठुर गये हैं , दिनकर देखो ,
अलसाई सी धूप है !
कहीं धुंध में भोर खो गई ,
ऋतु भी बड़ी अनूप है !
लगे ठंड में देह सिकुड़ती ,
शीतल शीतल गात हैं !!
खिला खिला धरणी का आँचल ,
छाई हुई बहार है !
खिले हुए हैं बाग – बगीचे ,
शीतल , मदिर बयार है !
पड़े ओस की बूंदे शीतल ,
नवल नवल से पात हैं !!
दिन पटरी पर यहां दौड़ते ,
आस जगे , ज्यों भूख है !
पहनो , ओढो , खाओ , पीओ ,
मन को भाए खूब है !
करें परिश्रम , बहे पसीना ,
थकन न लगती हाथ है !!
रातों में है , शहर सो रहे ,
हुए जागरण , गांव में !
फसलों को पानी देना है ,
रक्त थम गया पाँव में !
हिम्मत को बिठलाया काँधे ,
समय खा रहा मात है !!
कहीं रजाई , कंबल सजते ,
कहीं तापते आग हैं !
कहीं चैन की नींद अगर तो ,
कहीं रात भर जाग है !
गले लगाएं दुख को ना बस ,
इतनी सी तो बात है !!
रचना स्वरचित एवं पूर्णतया
मौलिक है !
रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )