नवरात्रि-गीत /
ढारती हैं
सुगर बिटियें
माई पर जल,
‘मुँह-अँधेरे’ ।
अनवरत क्रम
चल रहा है,
चैत्र में औ’ आश्विन में ;
भाव-भगतें
और सेवा
रात में भी और दिन में ;
रतजगे हैं
मठ-मढ़ों में,
भजन होते
मन्दिरों में,
शंख बजते
हैं, सबेरे ।
बोए जाते
हैं, जवारे
दिवालों में,देह पर भी ;
भक्ति का
उन्माद छाया
घृणा पर भी,नेह पर भी ;
दुआ बरसी
‘फाड़ छप्पर’
दीप जलते,
सजे खप्पर,
चित्र खींचें
ज्यों-चितेरे ।
भाव खेलें
चतुर पण्डे,
झाड़ते औ’ फूकते हैं ;
दौर नौ दिन
छल-कपट के,
सफल होते,चूकते हैं ;
मांस बिक्रय
मंद पड़ता
और मावा
भाव चढ़ता,
पुज रहे
पत्थर घनेरे ।
भाव, पूजा
भक्ति,श्रद्धा
और कुछ पाखंड भी है ;
साम-मिश्रित
दाम है औ’
भेद-मिश्रित दंड भी है ;
देव-असुरों
का महारण,
रात्रियाँ नौ
हैं विलक्षण,
मातृ-शक्ति
के बसेरे ।
लिए थाली
और लोटा,
हरद,अक्षत,पुष्प,रोली ;
खेरमाता
को चढ़ाने,
लिए जातीं लाल चोली ;
एक मढ़ से
दूसरे तक,
भाव-श्रद्धा
भरीं भरसक,
दे रहीं हैं
रोज़ फेरे ।
ढारती हैं
सुगर बिटियें
माई पर जल
‘मुँह-अँधेरे’ ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी(रहली),सागर
मध्यप्रदेश-470227
मो.-8463884927,
7000939929