नवनीत सी रात हो
दर्द रोने से दूर होता नही,शब्द इनको बना लो तो कुछ बात हो
पीर के मेघा पलकों में छाए मगर, अश्रु मोती के किंचित धरा पर गिरे
नेह के दीप को बुझने न दो,पथ में चाहें जितना अंधेरा घिरे
ऐसे मुस्काओ कि उपवन में कलिया खिले,ऐसे झुमों की मरुस्थल में बरसात हो
हर्ष हैं कष्ट से छाँव हैं धूप से,जिंदगी वस्तुतः इक संघर्ष है
यह कसौटी परम सत्य का साक्ष्य हैं, दाह स्पर्श में स्वर्ण उत्कर्ष हैं
जिंदगी एक शतरंजी बिसात हैं, ऐसे खेलो इसे मौत की मात हो
सबको आलोक दो अपने व्यक्तित्व का, सूर्य जैसे भले ताप से तुम जलो
लोक कल्याण बड़ा धर्म हैं, मान कर के यही लक्ष्य तुम चलो
ऐसे आवाज़ दो हर दिवस छन्द हो,ऐसे गाओ की नवनीत सी रात हो
©®@शकुंतला
अयोध्या(फैज़ाबाद)