नवगीत
काट रही है भूख चिकोटी।
दूध नहीं है
छाती में पर
चिपकी मुनिया छोटी।
देख रही है
दुनिया सारी
केवल अल्हड़ यौवन,
कामी बनकर
घूरें नजरें
बना ज़माना दुश्मन।
हमने गैंडे जैसी अपनी
चमड़ी कर ली मोटी।
जीवन में बस
सबसे ज्यादा
जिससे रही करीबी,
और नहीं वह
कोई अपनी
प्यारी सखी गरीबी
बोझे जैसा जीवन लगता
मुँह बिचकाती रोटी।
अन्नपूरणा के
जीवन में
सिसकी और कराहें।
ठंडा चूल्हा
देख देख कर
चौका भरता आहें,
हर बर्तन को लगता जैसे
किस्मत उसकी खोटी।
🖋डाॅ बिपिन पाण्डेय